पुरुष ख़ुद को ख़र्च करता है उन तमाम जगहों पर
जहाँ कोई सेल नहीं लगती
बॉस की फटकार, इंक्रिमेंट की पुकार
घर के ख़र्चे, दवाओं के पर्चे
उसके कुछ सपने बेच देते हैं
नींद का वक्त वो सपनों को देता है
और सपनों में नींद पूरी करता पुरुष
चाहकर भी कल्पनाओं में नहीं भटक पाता
तो छोड़ आता है कल्पनाओं को बचपन में लिखी डायरी के पास
माँ के पुराने बक्से में उसकी कल्पनाओं के चित्र
आख़िरी साँस ले रहे हैं
उसका कुछ हिस्सा उन खंडहरों में रह गया है
जहाँ उसे चुपके से चूम लिया था उसने
कुछ उस पेड़ के पास, जिसकी छाँव में
आख़िरी बार उसकी हथेली थामी थी
उसके पैंट के दाहिनी जेब में एक सूची पड़ी है
जिसने बताया कि दस का किलो मिलने वाला आटा
अब तीस में मिलने लगा है
शर्ट की जेब में लगी क़लम मुस्कुराते हुए कहती है
उसका कुछ हिस्सा मेरे पास गिरवी पड़ा है
हर महीने का बढ़ता सूद उसे कभी मेरे क़र्ज़ से मुक्त नहीं होने देगा
पुरुष का बिकना कहीं नहीं लिखा जाता
कभी नहीं कहा गया कि पसीने में भीगा
उसका कुर्ता दुनिया का सबसे कीमती ज़ेवर है
फिर भी हर रिश्ते में मौजूद उसकी बाहें
सुकून और सुरक्षा का पर्याय हैं।
हाँ नहीं होते कुछ पुरुष, पुरुष की तरह
तो कहाँ होती हैं सारी स्त्रियाँ, स्त्री की तरह
- रचनाकार : पल्लवी विनोद
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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