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पूरे पचास के पीछे

pure pachas ke pichhe

सुंदरजी बेटाई

सुंदरजी बेटाई

पूरे पचास के पीछे

सुंदरजी बेटाई

और अधिकसुंदरजी बेटाई

    “यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते यः”

    —यह भगवद् वाक्य मेरी आत्मा का नित्य कौतुक रहा।

    फिर भी अनेक बार मैं विविध रीति से दुखित हुआ

    और मैंने अनेकों को जाने-अनजाने दुःख पहुँचाया।

    “असत्यम् वा अप्रतिष्ठम्” मैंने नहीं माना जगत्,

    मानकर तीर्थ, जगत् का गुरुत्व हृदय में संभृत किया।

    कणशः क्षणशः जो भी पाया उसका नित्य संग्रह किया।

    वस्तुतः विविध रूप में मैंने पाया प्रीति उत्सव।

    मृदु, मिष्ठ और मूल्यवान मैत्री-सौरभ का अनुभव मैंने किया।

    अभद्रता से मैं इस जीवन में रहा अनभिज्ञ नहीं;

    उसके दर्शन से मैं कम उद्वेलित नहीं बना।

    किंतु अत्यंत प्रिय तो माना मैंने भद्र का करना संचय,

    अभद्र का भद्र-साधन होना भी मैंने जाना।

    'वैतरणी' कहकर मैं जीवन-निंदा में क्यो आनंद मानूँ

    है मुझमें भगीरथ-जैसी शक्ति या भक्ति गंगावतारण की।

    फिर भी मैंने जग में देखा है—वैतरणी का गंगा बनना।

    नदी जीवनदात्री है, बाढ़ प्रलयकारी, क्रूर हैं,

    उन्हें पार करने का प्रयत्न करने वाला औदार्य भी दूर नहीं है।

    समृद्ध विश्व-लीला रे! महान् रे विश्व सर्जक!

    मुझे क्या नहीं दिया—यद्यपि हूँ मैं तुच्छ अर्भक

    यह देह दी, दीप दिया अंधकार में ज्योतिदर्शक!

    ताप-संताप मध्य अमी के हे प्रवर्षक!

    विश्व में और विश्व के उस पार विलसित है जो विराट्,

    गवाक्ष से वह द्रष्टा को तो सुदृश्य है ही।

    पर मैं नहीं हूँ ऐसा द्रष्टा! फिर भी नही व्यर्थ दर्शन,

    आस्था के एक बल से ही सधता अघमर्षण।

    पूरे पचास के पीछे यों दृष्टि फेरते

    अल्पानुभव यात्रा के मंगल होते हैं सुस्पष्ट,

    मर्त्यलोक की यात्रा संजीवन से भरी-पूरी,

    भले ही इति हो इसकी मृत्यु के स्वस्ति वाचन में।

    स्वस्ति वाचन भी तो पुनश्च नवजीवन में संस्फुरित होता है!

    मेरे ये कर और हृदय तत्पर रहे हैं जग-समर्पण को;

    जग को मैंने दिया ही क्या है? देने को है ही क्या?

    बस, सत्कार किया जग का—सत्कार करता हूँ मैं अल्प,

    तुलसी दल से!

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 281)
    • रचनाकार : सुंदरजी गो. बेटाई
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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