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पुराने दिनों की एक कविता

purane dinon ki ek kawita

प्रभात मिलिंद

प्रभात मिलिंद

पुराने दिनों की एक कविता

प्रभात मिलिंद

और अधिकप्रभात मिलिंद

    विश्वास नहीं होता

    कि तुम्हारे ही वृत्त में घूम-घूमकर

    गुज़ार दीं मैंने जाने कितनी सदियाँ

    कि तुमसे दूर-दूर रहना

    मेरा स्वाँग था महज़

    ‘तुम नहीं लौटोगी

    फिर भी मैं प्रतीक्षा करूँ’—

    इस अनुबंध में परिभाषित प्रेम

    कैसे होता चिरंजीवी

    कि जीवन की आदिम उतप्तता से

    विमुख होकर

    सिर्फ़ मूल्यों के लिए जीना भी

    एक स्वाँग ही तो है

    तुम ही कहो

    कि जब अपने बच्चों को

    तुम सुनाओगी कभी

    लकड़हारे और राजकुमारी का क़िस्सा

    कि लकड़हारे को राजकुमारी

    फ़क़त इसलिए नहीं मिली

    क्योंकि वह लकड़हारा था

    तब क्या तुम में होगी यह साफ़गोई

    कि तुम उनको बतला सको

    लकड़हारा कौन था, और कौन थी राजकुमारी!

    बहुत असंगत लगती हो

    जब तुम कहती हो

    कि अब बहुत देर हो चुकी है,

    मैं कहता हूँ

    अभी भी इतनी देर नहीं हुई

    कि अगम चीड़ वनों को पार कर

    हम पहुँच पाएँ किसी युवा ऋषि के द्वार पर

    और उसके नैवेद्यों को

    अपवित्र करने के अपराध में

    हम जी सकें एक शापग्रस्त ज़िंदगी ही सही

    लेकिन साथ-साथ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रभात मिलिंद
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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