उस घनी रात
बजर किवाड़ लगाते वक़्त
कसकर धर लिया
पल्लों ने मेरा हाथ
और छुड़ाते-छुड़ाते रह ही गया
दरवाज़े के दोनों पाटों के बीच अँगूठा
वह कटे हुए हाथों की
ज़िंदा पकड़ थी
जिसमें बचते-बचाते आ गया था
देह का निर्जीवित कवच वाला सिरा
किसे दिखाऊँ यह घवाहिल अँगूठा
जिसमें ईंट-गारे में दबी काई की तरह
पिछली सदी की बची हरियाली ने
डाल दी थी अपनी मुहर
जिस पर अभियुक्त की तरह
खुदा है एक मुखिया का नाम
जिसने एक पेड़ को पत्थर बनाने का
किया था अपराध
मैं बता नहीं रहा किसी को
न लगा रहा मरहम
ख़ुश हो रहा प्रकृति पुरखे से मिलकर
थोड़ी नाराज़गी से ही सही
पर आख़िर इतने बरस बाद
उसने मिलाया है हाथ!
- रचनाकार : शरद रंजन शरद
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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