“क्यों यह दु:ख तुझे परदेसी!” लगा पूछने वैरागी—
“किस कारण से भरा हृदय, क्या व्यथा तेरे मन को लागी!
असौभाग्यवश छूट गया घर, मंदिर सुख आवास,
जिसके मिलने की तुझको अब रही न कुछ भी आस।
निज लोगों से बिछुर अकेला उनकी सुध में रोता है,
कर-कर सोच उन्हीं का फिर-फिर तन आँसू से धोता है!
या मैत्री का लिया बुरा पल, छल से वंचित होय,
दिया पराए अर्थ व्यर्थ को, सर्बस अपना खोय?
नवयौवन के सुधा सलिल में क्या विष बिंदु मिलाया है?
अपनी सौख्य वाटिका में क्या कंटक वृक्ष लगाया है?
अथवा तेरे अमित दु:ख का केवल वारण प्रेम,
होना कठिन निबाह जगत में, जिसका दुर्घट नेम?
महा तुच्छ सांसारिक सुख जो धन के बल से मिलता है,
कांच समान समझिए इसको, पल भर में सब गलता है।
जो इस नश्यमान धन सुख को, खोजे है मतिमूढ़,
उसके तुल्य धरातल ऊपर, है नहिं कोई कूढ़!
उसी भाँति सांसारिक मैत्री केवल एक कहानी है,
नाम मात्र से अधिक आज तक, नहीं किसी ने जानी है।
जब तक धन-संपदा, प्रतिष्ठा, अथवा यश विख्यात,
तब तक सभी मित्र, शुभचिंतक, निज कुल बांधव ज्ञाति।
अपना स्वार्थ सिद्ध करने को जगत मित्र बन जाता है,
किंतु काम पड़ने पर, कोई कभी काम नहिं आता है।
मरे बहुत से इस पृथ्वी पर पापी, कुटिल, कृतघ्न,
इसी एक कारण से उस पर, उठे अनेकों विघ्न।
जो तू प्रेम पंथ में पड़कर, मन को दु:ख पहुँचाता है,
तो है निपट अजान, जरा, निज जीवन व्यर्थ गँवाता है।
कुत्सित, कुटिल, क्रूर पृथ्वी पर कहाँ प्रेम का वास?
अरे मूर्ख, आकाश पुष्पवत्, झूठी उसकी आस।
जो कुछ प्रेम-अंश पृथ्वी पर, जब-तब पाया जाता है,
सो सब शुद्ध कपोतों ही के कुल में आदर पाता है।
धन-वैभव आदिक से भी, यह थोथा प्रेम-विचार,
वृथा मोह अज्ञान जनित, सब सत्य शून्य निस्सार।
बड़ी लाज है युवा पुरुष, नहीं इसमें तेरी शोभा है,
तज तरुणी का ध्यान, मन जिस पर तेरा लोभा है।”
इतना कहते ही योगी के, हुआ पथिक कुछ और,
लाज-सहित संकोच-भाव सा आया मुख पर दौर।
अति आश्चर्य दृश्य योगी का वहाँ दृष्टि अब आता है,
परम ललित लावण्य रूपनिधि, पथिक प्रकट बन जाता है।
ज्यों प्रभात अरुणोदय बेला विमल वर्ण आकाश,
त्यों ही गुप्त बटोही की छवि क्रम-क्रम हुई प्रकाश।
नीचे नेत्र, उच्च वक्षस्थल, रूप छटा फैलाता है,
शनै: शनै: दर्शक के मन पर, निज अधिकार जमाता है।
इस चरित्र से वैरागी को हुआ ज्ञान तत्काल,
नहीं पुरुष यह पथिक विलक्षण किंतु सुंदरी बाल!
“क्षमा, होए अपराध साधुवर, हे दयालु सद्गुणराशी!
भाग्यहीन एक दीन विरहिनी, है यथार्थ में यह दासी।
किया, अशुचि आकर मैंने, यह आश्रम परम पुनीत,
सिर नवाए, कर जोड़, दु:खिनी बोली वचन विनीत।
शोचनीय मम दशा, कथा मैं कहूँ आप सो सुन लीजे,
प्रेम-व्यथित अबला पर अपनी दया दृष्टि योगी कीजे।
केवल प्रथम प्रेरणा के वश छोड़ा अपना गेह।
धारण किया प्राणपति के हित, पुरुष-वेष निज देह।
टाइन नदि के रम्य तीर पर, भूमि मनोहर हरियाली,
लटक रहीं, झुक रहीं, जहाँ द्रुमलता, छुएँ जल से डाली।
चिपटा हुआ उसी के तट से, उज्ज्वल उच्च विशाल,
शोभित है एक महल बाग़ में आगे है एक ताल।
उस समग्र वन, भवन बाग़ का मेरा बाप ही स्वामी था,
धर्मशील, सत्कर्मनिष्ठ वह ज़मींदार एक नामी था।
बड़ा धनाढ्य, उदार, महाशय, दीन-दरिद्र सहाय,
कृषिकारों का प्रेमपार, सब विधि सद्गुण समुदाय।
मेरी बाल्य अवस्था ही में, माँ ने किया स्वर्ग प्रस्थान,
रही अकेली साथ पिता के, थी मैं उसकी जीवन प्रान।
बड़े स्नेह से उसने मुझको पाला पोसा आप।
सब कन्याओं को परमेश्वर देवे ऐसा बाप।
दो घंटे तक मुझे नित्य वह श्रम से आप पढ़ाता था,
विद्या विषयक विविध चातुरी, नित्य नई सिखलाता था।
करूँ कहाँ तक वर्णन उसकी अतुल दया का भाव?
हुआ न होगा किसी पिता का ऐसा मृदुल स्वभाव।
मैं ही एक बालिका, उसके सत्कुल में जीवित थी शेष,
इससे स्वत्व बाप के धन का प्राप्य मुझी को था नि:शेष।
या यथार्थ में गेह हमारा, सब प्रकार संपन्न।
ईश्वर-तुल्य पिता के सम्मुख, थी मैं पूर्ण प्रसन्न।
हमजोली की सखियों के सँग, पढ़ने-लिखने का आनंद,
परमप्रीतियुत प्यार परस्पर, सब विधि सदा सुखी स्वच्छंद।
सुख ही सुख में बीता मेरा बचपन का सब काल,
और उसी निश्चिंत दशा में लगी सोलवीं साल।
मुझे पिता की गोदी में से अलगाने के अभिलाषी,
आने लगे अनेक युवक अब, दूर-दूर तक के वासी।
भाँति-भाँति से करें प्रकट वह अपने मन का भाव,
बार-बार दरसाय बुद्धि, विद्या, बुल, शील, स्वभाव॥
पूर्ण रूप से मोहित मुझ पर अपना चित जनाते थे,
उपमा सहित रूप मेरे की, विविधि बड़ाई गाते थे।
नित्य-नित्य बहुमूल्य वस्तुओं के नवीन उपहार,
लाकर धरें करें सुश्रूषा युवक अनेक प्रकार।
उनमें एक कुमार एडविन, प्रेमी प्रतिदिन आता था,
क्या किशोर सुंदर सरूप, मन जिसको देख लुभाता था।
वारे था वह मेरे ऊपर, तन-मन सर्वस प्रान,
किंतु मनोरथ अपना उसने कभी प्रकाश किया न।
साधारण अति रहन-सहन, मृदु-बोल हृदय हरने वाला,
मधुर-मधुर मुस्क्यान मनोहर, मनुज वंश का उजियाला।
सम्य, सुजान, सत्कर्मपरायण, सौम्य, सुशील सुजान,
शुद्ध चरित्र, उदार, प्रकृति शुभ, विद्या बुद्धिनिधान॥
नहीं विभव कुछ धन धरती का, न अधिकार कोई उसको था,
गुण ही थे केवल उसका धन, सो धन सारा मुझको था।
उस अलभ्य धन के पाने को, थे नहिं मेरे भाग,
हा धिक् व्यर्थ प्राणधारण, धिक् जीवन का अनुराग।
प्राणपियारे की गुणगाथा, साधु कहाँ तक मैं गाऊँ,
गाते-गाते चुके नहीं वह चाहे मैं ही चुक जाऊँ।
विश्वनिकाई विधि ने उसमें की एकत्र बटोर,
बलिहारी त्रिभुवन धन उस पर बारों काम करोर।
मूरत उसकी बसी हृदय में अब तक मुझे जिलाती है,
फिर भी मिलने की दृढ़ आशा, धीरज अभी बँधाती है।
करती हूँ दिन-रात उसी का आराधन और ध्यान,
वो ही मेरा इष्टदेव है वो ही जीवन प्रान।
जब वह मेरे साथ टहलने शैल तटी में जाता था,
अपनी अमृतमयी वाणी से प्रेमसुधा बरसाता था।
उसके स्वर से हो जाता था वनस्थल का ठाम,
सौरभ मिलित सुरस स्वपूरित सुर कानन सुख वाम।
उसके मन की सुघराई की उपमा उचित कहाँ पाऊँ।
मुकुलित नवल कुसुम कलिका सम कहते फिर-फिर सकुचाऊँ
यद्यपि ओस बिंदु अति उज्जवल, मुक्ता विमल अनूप,
किंतु एक परिमाणु मात्र भी नहीं उसके अनुरूप।
तरु पर फूल कमल पर जलकण सुंदर परम सुहाते हैं,
अल्प काल के बीच किंतु वे कुम्हलाकर मिट जाते हैं।
उनकी उसमें रही मोहनी पर मुझको धिक्कार!
केवल एक क्षणिकता मुझमें थी उनके अनुसार।
क्योंकि रूप के अहंकार में हुई चपल, चंचल और ढीठ,
प्रेम परीक्षा करने का मैं उसको लगी दिखाने पीठ।
थी यथार्थ में यद्यपि उस पर तन-मन से आसक्त,
किंतु बनाय लिया ऊपर से सूखा रूप विरक्त।
पहुँचा उसे खेद इससे अति, हुआ दुखित अत्यंत उदास,
तज दी अपने मन में उसने मेरे मिलन की सब आस।
मैं यह दशा देखने पर भी, ऐसी हुई कठोर!
करने लगी अधिक रूखापन दिन-दिन उसकी ओर।
होकर निपट निरास, अंत को चला गया वह बेचारा,
अपने उस अनुचित घमंड का फल मैंने पाया सारा।
एकाकी में जाकर उसने तोड़ जगत से नेह,
धोकर हाथ प्रीत मेरी से, त्याग दिया निज देह।
किंतु प्रेमानिधि, प्राणनाथ को भूल नहीं मैं जाऊँगी,
प्राण दान के द्वारा उसका ऋण मैं आप चुकाऊँगी।
उस एकांत ठौर को मैं अब ढूँढ़ूँ हूँ दिन-रैन,
दु:ख की आग बुझाय जहाँ पर दूँ इस मन को चैन।
जाकर वहाँ जगत का मैं भी उसी भाँति बिसराऊँगी,
देह गेह को देय तिलांजलि, प्रिय से प्रीति निभाऊँगी।
मेरे लिए एडविन ने ज्यों किया प्रीति का नेम,
त्यों ही मैं भी शीघ्र करूँगी परिचित अपना प्रेम!
करे नहीं परमेश्वर ऐसा!” बोला झटपट बैरागी,
लिया गले लिपटाय उसे, पर वह क्रोधित होने लागी।
था परंतु यह वन का योगी वही एडविन आप,
आयु बितावै था जंगल में, भूल जगत संताप।
“मेरी जीवन मूर प्रानधन अहो अंजलैना प्यारी!”
बोला उत्कंठित होकर वह,—“अहा प्रीति जग से न्यारी!”
इतने दिन का बिछुरा तेरा वही एडविन आज,
मिला प्रिये, तुझको मैं, मेरे हुए सिद्ध सब काज।
“धन्यवाद ईश्वर को देकर बार-बार बलि-बलि जाऊँ,
तुझको गले लगा कर प्यारी निज जीवन का फल पाऊँ।
कर दीजै अब सब चिंता का इसी घड़ी से त्याग,
तू यह अपना पथिक वेश तज, मैं छोड़ूँ बैराग।
प्यारी तुझे छोड़कर मैं अब कभी नहीं जाऊँगा,
तेरी ही सेवा में अपना जीवन शेष बिताऊँगा।
गाऊँगा तब नाम अहर्निश पाऊँगा सुखदान,
तू ही एक मेरा सर्वस धन, तन-मन जीवन प्रान।
इस मुहूर्त से प्रिये, नहीं अब पल भर भी होंगे न्यारे,
जिन विघ्नों से था बिछोह यह, सो अब दूर हुए सारे।
यद्यपि भिन्न शरीर हमारे, हृदय प्राण मन एक,
परमेश्वर की अतुल कृपा से निभी हमारी टेक।”
योगी को अब उस रमणी ने भुज पर किया प्रेम आलिंग,
गद्गद् बोल, वारिपूरित दृग, उमंगित मन, पुलकित सब अंग।
बार-बार आलिंगित दोनों, करें प्रेम रस पान,
एक-एक की ओर निहारें, वारे तन-मन प्रान।
परम प्रशस्य अहो प्रेमी ये, कठिन प्रेम इनने साधा,
इस अनन्यता सहित धन्य, अपने प्यारे का आराधा।
प्रिय वियोग परितापित होकर, दिया सभी कुछ त्याग,
वन-वन फिरना लिया एक ने, दूजे ने वैराग।
धन्य अंजलैना तेरा व्रत, धन्य एडविन का यह नेम!
धन्य-धन्य यह मनोदमन और धन्य अटल उसका यह प्रेम!
रहो निरंतर साथ परस्पर, भोगो सुख आनंद
जुग-जुग जियो जुगल जोड़ी, मिल पियो प्रेम मकरंद!
“kyon ye duhakh tujhe pardesi!” laga puchhne wairagi—
“kis karan se bhara hirdai, kya wyatha tere man ko lagi!
asaubhagywash chhoot gaya ghar, mandir sukh awas,
jiske milne ki tujhko ab rahi na kuch bhi aas
nij logon se bichhur akela unki sudh mein rota hai,
kar kar soch unhin ka phir phir tan ansu se dhota hai!
ya maitri ka liya bura pal, chhal se wanchit hoy,
diya paraye arth byarth ko, sarbas apna khoy?
nawyauwan ke sudha salil mein kya wish bindu milaya hai?
apni saukhy watika mein kya kantak wriksh lagaya hai?
athwa tere amit duhakh ka kewal waran prem,
hona kathin nibah jagat mein, jiska durghat nem?
maha tuchchh sansarik sukh jo dhan ke bal se milta hai,
kanch saman samjhiye isko, pal bhar mein sab galta hai
jo is nashyman dhan sukh ko, khoje hai matimuDh,
uske tuly dharatal upar, hai nahin koi kooDh!
usi bhanti sansarik maitri kewal ek kahani hai,
nam matr se adhik aaj tak, nahin kisi ne jani hai
jab tak dhan sampada, pratishtha, athwa yash wikhyat,
tab tak sabhi mitr, shubhchintak, nij kul bandhaw gyati
apna swarth siddh karne ko jagat mitr ban jata hai,
kintu kaam paDne par, koi kabhi kaam nahin aata hai
mare bahut se is prithwi par papi, kutil, kritaghn,
isi ek karan se us par, uthe anekon wighn
jo tu prem panth mein paDkar, man ko duhakh pahunchata hai,
to hai nipat ajan, jara, nij jiwan byarth ganwata hai
kutsit, kutil, kroor prithwi par kahan prem ka was?
are moorkh, akash pushpwat, jhuthi uski aas
jo kuch prem ansh prithwi par, jab tab paya jata hai,
so sab shuddh kapoton hi ke kul mein aadar pata hai
dhan waibhaw aadik se bhi, ye thotha prem wichar,
writha moh agyan janit, sab saty shunya nissar
baDi laj hai yuwa purush, nahin ismen teri shobha hai,
taj tarunai ka dhyan, man jis par tera lobha hai ”
itna kahte hi yogi ke, hua pathik kuch aur,
laj sahit sankoch bhaw sa aaya mukh par daur
ati ashchary drishya yogi ka wahan drishti ab aata hai,
param lalit lawanya rupanidhi, pathik prakat ban jata hai
jyon parbhat arunaoday bela wimal warn akash,
tyon hi gupt batohi ki chhawi kram kram hui parkash
niche netr, uchch wakshasthal, roop chhata phailata hai,
shanaih shanaih darshak ke man par, nij adhikar jamata hai
is charitr se wairagi ko hua gyan tatkal,
nahin purush ye pathik wilakshan kintu sundri baal!
“kshama, hoe apradh sadhuwar, he dayalu sadgunrashi!
bhagyhin ek deen wirahini, hai yatharth mein ye dasi
kiya, ashuchi aakar mainne, ye ashram param punit,
sir nawaye, kar joD, duhakhini boli wachan winit
shochaniy mam dasha, katha main kahun aap so sun lije,
prem wyathit abla par apni daya drishti yogi kije
kewal pratham prerna ke wash chhoDa apna geh
dharan kiya pranapati ke hit, purush wesh nij deh
tine nadi ke ramy teer par, bhumi manohar hariyali,
latak rahin, jhuk rahin, jahan drumalta, chhuen jal se Dali
chipta hua usi ke tat se, ujjwal uchch wishal,
shobhit hai ek mahl bagh mein aage hai ek tal
us samagr wan, bhawan bagh ka mera bap hi swami tha,
dharmashil, satkarmnishth wo zamindar ek nami tha
baDa dhanaDhy, udar, mahashay, deen daridr sahay,
krishikaron ka prempar, sab widhi sadgun samuday
meri baaly awastha hi mein, man ne kiya swarg prasthan,
rahi akeli sath pita ke, thi main uski jiwan pran
baDe sneh se usne mujhko pala posa aap
sab kanyaon ko parmeshwar dewe aisa bap
do ghante tak mujhe nity wo shram se aap paDhata tha,
widdya wishayak wiwidh chaturi, nity nai sikhlata tha
karun kahan tak warnan uski atul daya ka bhaw?
hua na hoga kisi pita ka aisa mridul swbhaw
main hi ek balika, uske satkul mein jiwit thi shesh,
isse swatw bap ke dhan ka prapy mujhi ko tha nihshesh
ya yatharth mein geh hamara, sab prakar sampann
ishwar tuly pita ke sammukh, thi main poorn prasann
hamjoli ki sakhiyon ke sang, paDhne likhne ka anand,
parmapritiyut pyar paraspar, sab widhi sada sukhi swachchhand
sukh hi sukh mein bita mera bachpan ka sab kal,
aur usi nishchint dasha mein lagi solwin sal
mujhe pita ki godi mein se algane ke abhilashai,
ane lage anek yuwak ab, door door tak ke wasi
bhanti bhanti se karen prakat wo apne man ka bhaw,
bar bar darsay buddhi, widdya, bul, sheel, swbhaw॥
poorn roop se mohit mujh par apna chit janate the,
upma sahit roop mere ki, wiwidhi baDai gate the
nity nity bahumuly wastuon ke nawin uphaar,
lakar dharen karen sushrusha yuwak anek prakar
unmen ek kumar eDwin, premi pratidin aata tha,
kya kishor sundar sarup, man jisko dekh lubhata tha
ware tha wo mere upar, tan man sarwas pran,
kintu manorath apna usne kabhi parkash kiya na
sadharan ati rahan sahn, mridu bol hirdai harne wala,
madhur madhur muskyan manohar, manuj wansh ka ujiyala
samya, sujan, satkarmaprayan, saumy, sushil sujan,
shuddh charitr, udar, prakrti shubh, widdya buddhinidhan॥
nahin wibhaw kuch dhan dharti ka, na adhikar koi usko tha,
gun hi the kewal uska dhan, so dhan sara mujhko tha
us alabhy dhan ke pane ko, the nahin mere bhag,
ha dhik byarth pranadharan, dhik jiwan ka anurag
pranapiyare ki gungatha, sadhu kahan tak main gaun,
gate gate chuke nahin wo chahe main hi chuk jaun
wishwanikai widhi ne usmen ki ekatr bator,
balihari tribhuwan dhan us par baron kaam karor
murat uski basi hirdai mein ab tak mujhe jilati hai,
phir bhi milne ki driDh aasha, dhiraj abhi bandhati hai
karti hoon din raat usi ka aradhan aur dhyan,
wo hi mera ishtdew hai wo hi jiwan pran
jab wo mere sath tahalne shail tati mein jata tha,
apni amrtamyi wani se premasudha barsata tha
uske swar se ho jata tha wanasthal ka tham,
saurabh milit suras swpurit sur kanan sukh wam
uske man ki sughrai ki upma uchit kahan paun
mukulit nawal kusum kalika sam kahte phir phir sakuchaun
yadyapi os bindu ati ujjwal, mukta wimal anup,
kintu ek parimanu matr bhi nahin uske anurup
taru par phool kamal par jalkan sundar param suhate hain,
alp kal ke beech kintu we kumhlakar mit jate hain
unki usmen rahi mohani par mujhko dhikkar!
kewal ek kshanaikta mujhmen thi unke anusar
kyonki roop ke ahankar mein hui chapal, chanchal aur Dheeth,
prem pariksha karne ka main usko lagi dikhane peeth
thi yatharth mein yadyapi us par tan man se asakt,
kintu banay liya upar se sukha roop wirakt
pahuncha use khed isse ati, hua dukhit atyant udas,
taj di apne man mein usne mere milan ki sab aas
main ye dasha dekhne par bhi, aisi hui kathor!
karne lagi adhik rukhapan din din uski or
hokar nipat niras, ant ko chala gaya wo bechara,
apne us anuchit ghamanD ka phal mainne paya sara
ekaki mein jakar usne toD jagat se neh,
dhokar hath preet meri se, tyag diya nij deh
kintu premanidhi, prananath ko bhool nahin main jaungi,
paran dan ke dwara uska rn main aap chukaungi
us ekant thaur ko main ab DhunDhun hoon din rain,
duhakh ki aag bujhay jahan par doon is man ko chain
jakar wahan jagat ka main bhi usi bhanti bisraungi,
deh geh ko dey tilanjali, priy se priti nibhaungi
mere liye eDwin ne jyon kiya priti ka nem,
tyon hi main bhi sheeghr karungi parichit apna prem!
kare nahin parmeshwar aisa!” bola jhatpat bairagi,
liya gale liptay use, par wo krodhit hone lagi
tha parantu ye wan ka yogi wahi eDwin aap,
ayu bitawai tha jangal mein, bhool jagat santap
“meri jiwan moor prandhan aho anjalaina pyari!”
bola utkanthit hokar wo,—“aha priti jag se nyari!”
itne din ka bichhura tera wahi eDwin aaj,
mila priye, tujhko main, mere hue siddh sab kaj
“dhanyawad ishwar ko dekar bar bar bali bali jaun,
tujhko gale laga kar pyari nij jiwan ka phal paun
kar dijai ab sab chinta ka isi ghaDi se tyag,
tu ye apna pathik wesh taj, main chhoDun bairag
pyari tujhe chhoDkar main ab kabhi nahin jaunga,
teri hi sewa mein apna jiwan shesh bitaunga
gaunga tab nam aharnish paunga sukhdan,
tu hi ek mera sarwas dhan, tan man jiwan pran
is muhurt se priye, nahin ab pal bhar bhi honge nyare,
jin wighnon se tha bichhoh ye, so ab door hue sare
yadyapi bhinn sharir hamare, hirdai paran man ek,
parmeshwar ki atul kripa se nibhi hamari tek ”
yogi ko ab us ramni ne bhuj par kiya prem aling,
gadgad bol, waripurit drig, umangit man, pulkit sab ang
bar bar alingit donon, karen prem ras pan,
ek ek ki or niharen, ware tan man pran
param prshasya aho premi ye, kathin prem inne sadha,
is ananyata sahit dhany, apne pyare ka aradha
priy wiyog paritapit hokar, diya sabhi kuch tyag,
wan wan phirna liya ek ne, duje ne wairag
dhany anjalaina tera wart, dhany eDwin ka ye nem!
dhany dhany ye manodman aur dhany atal uska ye prem!
raho nirantar sath paraspar, bhogo sukh anand
jug jug jiyo jugal joDi, mil piyo prem makrand!
“kyon ye duhakh tujhe pardesi!” laga puchhne wairagi—
“kis karan se bhara hirdai, kya wyatha tere man ko lagi!
asaubhagywash chhoot gaya ghar, mandir sukh awas,
jiske milne ki tujhko ab rahi na kuch bhi aas
nij logon se bichhur akela unki sudh mein rota hai,
kar kar soch unhin ka phir phir tan ansu se dhota hai!
ya maitri ka liya bura pal, chhal se wanchit hoy,
diya paraye arth byarth ko, sarbas apna khoy?
nawyauwan ke sudha salil mein kya wish bindu milaya hai?
apni saukhy watika mein kya kantak wriksh lagaya hai?
athwa tere amit duhakh ka kewal waran prem,
hona kathin nibah jagat mein, jiska durghat nem?
maha tuchchh sansarik sukh jo dhan ke bal se milta hai,
kanch saman samjhiye isko, pal bhar mein sab galta hai
jo is nashyman dhan sukh ko, khoje hai matimuDh,
uske tuly dharatal upar, hai nahin koi kooDh!
usi bhanti sansarik maitri kewal ek kahani hai,
nam matr se adhik aaj tak, nahin kisi ne jani hai
jab tak dhan sampada, pratishtha, athwa yash wikhyat,
tab tak sabhi mitr, shubhchintak, nij kul bandhaw gyati
apna swarth siddh karne ko jagat mitr ban jata hai,
kintu kaam paDne par, koi kabhi kaam nahin aata hai
mare bahut se is prithwi par papi, kutil, kritaghn,
isi ek karan se us par, uthe anekon wighn
jo tu prem panth mein paDkar, man ko duhakh pahunchata hai,
to hai nipat ajan, jara, nij jiwan byarth ganwata hai
kutsit, kutil, kroor prithwi par kahan prem ka was?
are moorkh, akash pushpwat, jhuthi uski aas
jo kuch prem ansh prithwi par, jab tab paya jata hai,
so sab shuddh kapoton hi ke kul mein aadar pata hai
dhan waibhaw aadik se bhi, ye thotha prem wichar,
writha moh agyan janit, sab saty shunya nissar
baDi laj hai yuwa purush, nahin ismen teri shobha hai,
taj tarunai ka dhyan, man jis par tera lobha hai ”
itna kahte hi yogi ke, hua pathik kuch aur,
laj sahit sankoch bhaw sa aaya mukh par daur
ati ashchary drishya yogi ka wahan drishti ab aata hai,
param lalit lawanya rupanidhi, pathik prakat ban jata hai
jyon parbhat arunaoday bela wimal warn akash,
tyon hi gupt batohi ki chhawi kram kram hui parkash
niche netr, uchch wakshasthal, roop chhata phailata hai,
shanaih shanaih darshak ke man par, nij adhikar jamata hai
is charitr se wairagi ko hua gyan tatkal,
nahin purush ye pathik wilakshan kintu sundri baal!
“kshama, hoe apradh sadhuwar, he dayalu sadgunrashi!
bhagyhin ek deen wirahini, hai yatharth mein ye dasi
kiya, ashuchi aakar mainne, ye ashram param punit,
sir nawaye, kar joD, duhakhini boli wachan winit
shochaniy mam dasha, katha main kahun aap so sun lije,
prem wyathit abla par apni daya drishti yogi kije
kewal pratham prerna ke wash chhoDa apna geh
dharan kiya pranapati ke hit, purush wesh nij deh
tine nadi ke ramy teer par, bhumi manohar hariyali,
latak rahin, jhuk rahin, jahan drumalta, chhuen jal se Dali
chipta hua usi ke tat se, ujjwal uchch wishal,
shobhit hai ek mahl bagh mein aage hai ek tal
us samagr wan, bhawan bagh ka mera bap hi swami tha,
dharmashil, satkarmnishth wo zamindar ek nami tha
baDa dhanaDhy, udar, mahashay, deen daridr sahay,
krishikaron ka prempar, sab widhi sadgun samuday
meri baaly awastha hi mein, man ne kiya swarg prasthan,
rahi akeli sath pita ke, thi main uski jiwan pran
baDe sneh se usne mujhko pala posa aap
sab kanyaon ko parmeshwar dewe aisa bap
do ghante tak mujhe nity wo shram se aap paDhata tha,
widdya wishayak wiwidh chaturi, nity nai sikhlata tha
karun kahan tak warnan uski atul daya ka bhaw?
hua na hoga kisi pita ka aisa mridul swbhaw
main hi ek balika, uske satkul mein jiwit thi shesh,
isse swatw bap ke dhan ka prapy mujhi ko tha nihshesh
ya yatharth mein geh hamara, sab prakar sampann
ishwar tuly pita ke sammukh, thi main poorn prasann
hamjoli ki sakhiyon ke sang, paDhne likhne ka anand,
parmapritiyut pyar paraspar, sab widhi sada sukhi swachchhand
sukh hi sukh mein bita mera bachpan ka sab kal,
aur usi nishchint dasha mein lagi solwin sal
mujhe pita ki godi mein se algane ke abhilashai,
ane lage anek yuwak ab, door door tak ke wasi
bhanti bhanti se karen prakat wo apne man ka bhaw,
bar bar darsay buddhi, widdya, bul, sheel, swbhaw॥
poorn roop se mohit mujh par apna chit janate the,
upma sahit roop mere ki, wiwidhi baDai gate the
nity nity bahumuly wastuon ke nawin uphaar,
lakar dharen karen sushrusha yuwak anek prakar
unmen ek kumar eDwin, premi pratidin aata tha,
kya kishor sundar sarup, man jisko dekh lubhata tha
ware tha wo mere upar, tan man sarwas pran,
kintu manorath apna usne kabhi parkash kiya na
sadharan ati rahan sahn, mridu bol hirdai harne wala,
madhur madhur muskyan manohar, manuj wansh ka ujiyala
samya, sujan, satkarmaprayan, saumy, sushil sujan,
shuddh charitr, udar, prakrti shubh, widdya buddhinidhan॥
nahin wibhaw kuch dhan dharti ka, na adhikar koi usko tha,
gun hi the kewal uska dhan, so dhan sara mujhko tha
us alabhy dhan ke pane ko, the nahin mere bhag,
ha dhik byarth pranadharan, dhik jiwan ka anurag
pranapiyare ki gungatha, sadhu kahan tak main gaun,
gate gate chuke nahin wo chahe main hi chuk jaun
wishwanikai widhi ne usmen ki ekatr bator,
balihari tribhuwan dhan us par baron kaam karor
murat uski basi hirdai mein ab tak mujhe jilati hai,
phir bhi milne ki driDh aasha, dhiraj abhi bandhati hai
karti hoon din raat usi ka aradhan aur dhyan,
wo hi mera ishtdew hai wo hi jiwan pran
jab wo mere sath tahalne shail tati mein jata tha,
apni amrtamyi wani se premasudha barsata tha
uske swar se ho jata tha wanasthal ka tham,
saurabh milit suras swpurit sur kanan sukh wam
uske man ki sughrai ki upma uchit kahan paun
mukulit nawal kusum kalika sam kahte phir phir sakuchaun
yadyapi os bindu ati ujjwal, mukta wimal anup,
kintu ek parimanu matr bhi nahin uske anurup
taru par phool kamal par jalkan sundar param suhate hain,
alp kal ke beech kintu we kumhlakar mit jate hain
unki usmen rahi mohani par mujhko dhikkar!
kewal ek kshanaikta mujhmen thi unke anusar
kyonki roop ke ahankar mein hui chapal, chanchal aur Dheeth,
prem pariksha karne ka main usko lagi dikhane peeth
thi yatharth mein yadyapi us par tan man se asakt,
kintu banay liya upar se sukha roop wirakt
pahuncha use khed isse ati, hua dukhit atyant udas,
taj di apne man mein usne mere milan ki sab aas
main ye dasha dekhne par bhi, aisi hui kathor!
karne lagi adhik rukhapan din din uski or
hokar nipat niras, ant ko chala gaya wo bechara,
apne us anuchit ghamanD ka phal mainne paya sara
ekaki mein jakar usne toD jagat se neh,
dhokar hath preet meri se, tyag diya nij deh
kintu premanidhi, prananath ko bhool nahin main jaungi,
paran dan ke dwara uska rn main aap chukaungi
us ekant thaur ko main ab DhunDhun hoon din rain,
duhakh ki aag bujhay jahan par doon is man ko chain
jakar wahan jagat ka main bhi usi bhanti bisraungi,
deh geh ko dey tilanjali, priy se priti nibhaungi
mere liye eDwin ne jyon kiya priti ka nem,
tyon hi main bhi sheeghr karungi parichit apna prem!
kare nahin parmeshwar aisa!” bola jhatpat bairagi,
liya gale liptay use, par wo krodhit hone lagi
tha parantu ye wan ka yogi wahi eDwin aap,
ayu bitawai tha jangal mein, bhool jagat santap
“meri jiwan moor prandhan aho anjalaina pyari!”
bola utkanthit hokar wo,—“aha priti jag se nyari!”
itne din ka bichhura tera wahi eDwin aaj,
mila priye, tujhko main, mere hue siddh sab kaj
“dhanyawad ishwar ko dekar bar bar bali bali jaun,
tujhko gale laga kar pyari nij jiwan ka phal paun
kar dijai ab sab chinta ka isi ghaDi se tyag,
tu ye apna pathik wesh taj, main chhoDun bairag
pyari tujhe chhoDkar main ab kabhi nahin jaunga,
teri hi sewa mein apna jiwan shesh bitaunga
gaunga tab nam aharnish paunga sukhdan,
tu hi ek mera sarwas dhan, tan man jiwan pran
is muhurt se priye, nahin ab pal bhar bhi honge nyare,
jin wighnon se tha bichhoh ye, so ab door hue sare
yadyapi bhinn sharir hamare, hirdai paran man ek,
parmeshwar ki atul kripa se nibhi hamari tek ”
yogi ko ab us ramni ne bhuj par kiya prem aling,
gadgad bol, waripurit drig, umangit man, pulkit sab ang
bar bar alingit donon, karen prem ras pan,
ek ek ki or niharen, ware tan man pran
param prshasya aho premi ye, kathin prem inne sadha,
is ananyata sahit dhany, apne pyare ka aradha
priy wiyog paritapit hokar, diya sabhi kuch tyag,
wan wan phirna liya ek ne, duje ne wairag
dhany anjalaina tera wart, dhany eDwin ka ye nem!
dhany dhany ye manodman aur dhany atal uska ye prem!
raho nirantar sath paraspar, bhogo sukh anand
jug jug jiyo jugal joDi, mil piyo prem makrand!
स्रोत :
पुस्तक : कवि भारती (पृष्ठ 3)
रचनाकार : श्रीधर पाठक
प्रकाशन : साहित्य प्रेस
संस्करण : 1953
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