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श्रीधर पाठक

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श्रीधर पाठक

और अधिकश्रीधर पाठक

    “क्यों यह दु:ख तुझे परदेसी!” लगा पूछने वैरागी—

    “किस कारण से भरा हृदय, क्या व्यथा तेरे मन को लागी!

    असौभाग्यवश छूट गया घर, मंदिर सुख आवास,

    जिसके मिलने की तुझको अब रही कुछ भी आस।

    निज लोगों से बिछुर अकेला उनकी सुध में रोता है,

    कर-कर सोच उन्हीं का फिर-फिर तन आँसू से धोता है!

    या मैत्री का लिया बुरा पल, छल से वंचित होय,

    दिया पराए अर्थ व्यर्थ को, सर्बस अपना खोय?

    नवयौवन के सुधा सलिल में क्या विष बिंदु मिलाया है?

    अपनी सौख्य वाटिका में क्या कंटक वृक्ष लगाया है?

    अथवा तेरे अमित दु:ख का केवल वारण प्रेम,

    होना कठिन निबाह जगत में, जिसका दुर्घट नेम?

    महा तुच्छ सांसारिक सुख जो धन के बल से मिलता है,

    कांच समान समझिए इसको, पल भर में सब गलता है।

    जो इस नश्यमान धन सुख को, खोजे है मतिमूढ़,

    उसके तुल्य धरातल ऊपर, है नहिं कोई कूढ़!

    उसी भाँति सांसारिक मैत्री केवल एक कहानी है,

    नाम मात्र से अधिक आज तक, नहीं किसी ने जानी है।

    जब तक धन-संपदा, प्रतिष्ठा, अथवा यश विख्यात,

    तब तक सभी मित्र, शुभचिंतक, निज कुल बांधव ज्ञाति।

    अपना स्वार्थ सिद्ध करने को जगत मित्र बन जाता है,

    किंतु काम पड़ने पर, कोई कभी काम नहिं आता है।

    मरे बहुत से इस पृथ्वी पर पापी, कुटिल, कृतघ्न,

    इसी एक कारण से उस पर, उठे अनेकों विघ्न।

    जो तू प्रेम पंथ में पड़कर, मन को दु:ख पहुँचाता है,

    तो है निपट अजान, जरा, निज जीवन व्यर्थ गँवाता है।

    कुत्सित, कुटिल, क्रूर पृथ्वी पर कहाँ प्रेम का वास?

    अरे मूर्ख, आकाश पुष्पवत्, झूठी उसकी आस।

    जो कुछ प्रेम-अंश पृथ्वी पर, जब-तब पाया जाता है,

    सो सब शुद्ध कपोतों ही के कुल में आदर पाता है।

    धन-वैभव आदिक से भी, यह थोथा प्रेम-विचार,

    वृथा मोह अज्ञान जनित, सब सत्य शून्य निस्सार।

    बड़ी लाज है युवा पुरुष, नहीं इसमें तेरी शोभा है,

    तज तरुणी का ध्यान, मन जिस पर तेरा लोभा है।”

    इतना कहते ही योगी के, हुआ पथिक कुछ और,

    लाज-सहित संकोच-भाव सा आया मुख पर दौर।

    अति आश्चर्य दृश्य योगी का वहाँ दृष्टि अब आता है,

    परम ललित लावण्य रूपनिधि, पथिक प्रकट बन जाता है।

    ज्यों प्रभात अरुणोदय बेला विमल वर्ण आकाश,

    त्यों ही गुप्त बटोही की छवि क्रम-क्रम हुई प्रकाश।

    नीचे नेत्र, उच्च वक्षस्थल, रूप छटा फैलाता है,

    शनै: शनै: दर्शक के मन पर, निज अधिकार जमाता है।

    इस चरित्र से वैरागी को हुआ ज्ञान तत्काल,

    नहीं पुरुष यह पथिक विलक्षण किंतु सुंदरी बाल!

    “क्षमा, होए अपराध साधुवर, हे दयालु सद्गुणराशी!

    भाग्यहीन एक दीन विरहिनी, है यथार्थ में यह दासी।

    किया, अशुचि आकर मैंने, यह आश्रम परम पुनीत,

    सिर नवाए, कर जोड़, दु:खिनी बोली वचन विनीत।

    शोचनीय मम दशा, कथा मैं कहूँ आप सो सुन लीजे,

    प्रेम-व्यथित अबला पर अपनी दया दृष्टि योगी कीजे।

    केवल प्रथम प्रेरणा के वश छोड़ा अपना गेह।

    धारण किया प्राणपति के हित, पुरुष-वेष निज देह।

    टाइन नदि के रम्य तीर पर, भूमि मनोहर हरियाली,

    लटक रहीं, झुक रहीं, जहाँ द्रुमलता, छुएँ जल से डाली।

    चिपटा हुआ उसी के तट से, उज्ज्वल उच्च विशाल,

    शोभित है एक महल बाग़ में आगे है एक ताल।

    उस समग्र वन, भवन बाग़ का मेरा बाप ही स्वामी था,

    धर्मशील, सत्कर्मनिष्ठ वह ज़मींदार एक नामी था।

    बड़ा धनाढ्य, उदार, महाशय, दीन-दरिद्र सहाय,

    कृषिकारों का प्रेमपार, सब विधि सद्गुण समुदाय।

    मेरी बाल्य अवस्था ही में, माँ ने किया स्वर्ग प्रस्थान,

    रही अकेली साथ पिता के, थी मैं उसकी जीवन प्रान।

    बड़े स्नेह से उसने मुझको पाला पोसा आप।

    सब कन्याओं को परमेश्वर देवे ऐसा बाप।

    दो घंटे तक मुझे नित्य वह श्रम से आप पढ़ाता था,

    विद्या विषयक विविध चातुरी, नित्य नई सिखलाता था।

    करूँ कहाँ तक वर्णन उसकी अतुल दया का भाव?

    हुआ होगा किसी पिता का ऐसा मृदुल स्वभाव।

    मैं ही एक बालिका, उसके सत्कुल में जीवित थी शेष,

    इससे स्वत्व बाप के धन का प्राप्य मुझी को था नि:शेष।

    या यथार्थ में गेह हमारा, सब प्रकार संपन्न।

    ईश्वर-तुल्य पिता के सम्मुख, थी मैं पूर्ण प्रसन्न।

    हमजोली की सखियों के सँग, पढ़ने-लिखने का आनंद,

    परमप्रीतियुत प्यार परस्पर, सब विधि सदा सुखी स्वच्छंद।

    सुख ही सुख में बीता मेरा बचपन का सब काल,

    और उसी निश्चिंत दशा में लगी सोलवीं साल।

    मुझे पिता की गोदी में से अलगाने के अभिलाषी,

    आने लगे अनेक युवक अब, दूर-दूर तक के वासी।

    भाँति-भाँति से करें प्रकट वह अपने मन का भाव,

    बार-बार दरसाय बुद्धि, विद्या, बुल, शील, स्वभाव॥

    पूर्ण रूप से मोहित मुझ पर अपना चित जनाते थे,

    उपमा सहित रूप मेरे की, विविधि बड़ाई गाते थे।

    नित्य-नित्य बहुमूल्य वस्तुओं के नवीन उपहार,

    लाकर धरें करें सुश्रूषा युवक अनेक प्रकार।

    उनमें एक कुमार एडविन, प्रेमी प्रतिदिन आता था,

    क्या किशोर सुंदर सरूप, मन जिसको देख लुभाता था।

    वारे था वह मेरे ऊपर, तन-मन सर्वस प्रान,

    किंतु मनोरथ अपना उसने कभी प्रकाश किया न।

    साधारण अति रहन-सहन, मृदु-बोल हृदय हरने वाला,

    मधुर-मधुर मुस्क्यान मनोहर, मनुज वंश का उजियाला।

    सम्य, सुजान, सत्कर्मपरायण, सौम्य, सुशील सुजान,

    शुद्ध चरित्र, उदार, प्रकृति शुभ, विद्या बुद्धिनिधान॥

    नहीं विभव कुछ धन धरती का, अधिकार कोई उसको था,

    गुण ही थे केवल उसका धन, सो धन सारा मुझको था।

    उस अलभ्य धन के पाने को, थे नहिं मेरे भाग,

    हा धिक् व्यर्थ प्राणधारण, धिक् जीवन का अनुराग।

    प्राणपियारे की गुणगाथा, साधु कहाँ तक मैं गाऊँ,

    गाते-गाते चुके नहीं वह चाहे मैं ही चुक जाऊँ।

    विश्वनिकाई विधि ने उसमें की एकत्र बटोर,

    बलिहारी त्रिभुवन धन उस पर बारों काम करोर।

    मूरत उसकी बसी हृदय में अब तक मुझे जिलाती है,

    फिर भी मिलने की दृढ़ आशा, धीरज अभी बँधाती है।

    करती हूँ दिन-रात उसी का आराधन और ध्यान,

    वो ही मेरा इष्टदेव है वो ही जीवन प्रान।

    जब वह मेरे साथ टहलने शैल तटी में जाता था,

    अपनी अमृतमयी वाणी से प्रेमसुधा बरसाता था।

    उसके स्वर से हो जाता था वनस्थल का ठाम,

    सौरभ मिलित सुरस स्वपूरित सुर कानन सुख वाम।

    उसके मन की सुघराई की उपमा उचित कहाँ पाऊँ।

    मुकुलित नवल कुसुम कलिका सम कहते फिर-फिर सकुचाऊँ

    यद्यपि ओस बिंदु अति उज्जवल, मुक्ता विमल अनूप,

    किंतु एक परिमाणु मात्र भी नहीं उसके अनुरूप।

    तरु पर फूल कमल पर जलकण सुंदर परम सुहाते हैं,

    अल्प काल के बीच किंतु वे कुम्हलाकर मिट जाते हैं।

    उनकी उसमें रही मोहनी पर मुझको धिक्कार!

    केवल एक क्षणिकता मुझमें थी उनके अनुसार।

    क्योंकि रूप के अहंकार में हुई चपल, चंचल और ढीठ,

    प्रेम परीक्षा करने का मैं उसको लगी दिखाने पीठ।

    थी यथार्थ में यद्यपि उस पर तन-मन से आसक्त,

    किंतु बनाय लिया ऊपर से सूखा रूप विरक्त।

    पहुँचा उसे खेद इससे अति, हुआ दुखित अत्यंत उदास,

    तज दी अपने मन में उसने मेरे मिलन की सब आस।

    मैं यह दशा देखने पर भी, ऐसी हुई कठोर!

    करने लगी अधिक रूखापन दिन-दिन उसकी ओर।

    होकर निपट निरास, अंत को चला गया वह बेचारा,

    अपने उस अनुचित घमंड का फल मैंने पाया सारा।

    एकाकी में जाकर उसने तोड़ जगत से नेह,

    धोकर हाथ प्रीत मेरी से, त्याग दिया निज देह।

    किंतु प्रेमानिधि, प्राणनाथ को भूल नहीं मैं जाऊँगी,

    प्राण दान के द्वारा उसका ऋण मैं आप चुकाऊँगी।

    उस एकांत ठौर को मैं अब ढूँढ़ूँ हूँ दिन-रैन,

    दु:ख की आग बुझाय जहाँ पर दूँ इस मन को चैन।

    जाकर वहाँ जगत का मैं भी उसी भाँति बिसराऊँगी,

    देह गेह को देय तिलांजलि, प्रिय से प्रीति निभाऊँगी।

    मेरे लिए एडविन ने ज्यों किया प्रीति का नेम,

    त्यों ही मैं भी शीघ्र करूँगी परिचित अपना प्रेम!

    करे नहीं परमेश्वर ऐसा!” बोला झटपट बैरागी,

    लिया गले लिपटाय उसे, पर वह क्रोधित होने लागी।

    था परंतु यह वन का योगी वही एडविन आप,

    आयु बितावै था जंगल में, भूल जगत संताप।

    “मेरी जीवन मूर प्रानधन अहो अंजलैना प्यारी!”

    बोला उत्कंठित होकर वह,—“अहा प्रीति जग से न्यारी!”

    इतने दिन का बिछुरा तेरा वही एडविन आज,

    मिला प्रिये, तुझको मैं, मेरे हुए सिद्ध सब काज।

    “धन्यवाद ईश्वर को देकर बार-बार बलि-बलि जाऊँ,

    तुझको गले लगा कर प्यारी निज जीवन का फल पाऊँ।

    कर दीजै अब सब चिंता का इसी घड़ी से त्याग,

    तू यह अपना पथिक वेश तज, मैं छोड़ूँ बैराग।

    प्यारी तुझे छोड़कर मैं अब कभी नहीं जाऊँगा,

    तेरी ही सेवा में अपना जीवन शेष बिताऊँगा।

    गाऊँगा तब नाम अहर्निश पाऊँगा सुखदान,

    तू ही एक मेरा सर्वस धन, तन-मन जीवन प्रान।

    इस मुहूर्त से प्रिये, नहीं अब पल भर भी होंगे न्यारे,

    जिन विघ्नों से था बिछोह यह, सो अब दूर हुए सारे।

    यद्यपि भिन्न शरीर हमारे, हृदय प्राण मन एक,

    परमेश्वर की अतुल कृपा से निभी हमारी टेक।”

    योगी को अब उस रमणी ने भुज पर किया प्रेम आलिंग,

    गद्गद् बोल, वारिपूरित दृग, उमंगित मन, पुलकित सब अंग।

    बार-बार आलिंगित दोनों, करें प्रेम रस पान,

    एक-एक की ओर निहारें, वारे तन-मन प्रान।

    परम प्रशस्य अहो प्रेमी ये, कठिन प्रेम इनने साधा,

    इस अनन्यता सहित धन्य, अपने प्यारे का आराधा।

    प्रिय वियोग परितापित होकर, दिया सभी कुछ त्याग,

    वन-वन फिरना लिया एक ने, दूजे ने वैराग।

    धन्य अंजलैना तेरा व्रत, धन्य एडविन का यह नेम!

    धन्य-धन्य यह मनोदमन और धन्य अटल उसका यह प्रेम!

    रहो निरंतर साथ परस्पर, भोगो सुख आनंद

    जुग-जुग जियो जुगल जोड़ी, मिल पियो प्रेम मकरंद!

    स्रोत :
    • पुस्तक : कवि भारती (पृष्ठ 3)
    • रचनाकार : श्रीधर पाठक
    • प्रकाशन : साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1953

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