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ओ स्वप्नों के संसार विदा!

o swapnon ke sansar wida!

गुरुभक्तसिंह भक्त

गुरुभक्तसिंह भक्त

ओ स्वप्नों के संसार विदा!

गुरुभक्तसिंह भक्त

और अधिकगुरुभक्तसिंह भक्त

    स्वप्नों के संसार विदा, बालकपन के प्यार विदा।

    शोभा के आगार विदा, मनमोहन के मनुहार विदा॥

    यमुना का कल-कल नाद विदा, आँखों का वह उन्माद विदा।

    आमोदों का प्रासाद विदा, वह जीवन का आह्लाद विदा॥

    उस मधुर कल्पना-शिल्पी के, महलों का माया-जाल विदा।

    उस मेरे हृदय सरोवर का, सुंदर सुखद मराल विदा॥

    कौमार्य-कली के कलित कामनाओं का, मौन विकास विदा।

    वह दिनकर संगम से प्राची में, ऊषा का मृदुहास विदा॥

    अनिल-नींव-पर-बने हुए, अभिलाषाओं के कोट विदा।

    क्रूर काल के कठिन करों के, अंतस्तल की चोट विदा॥

    हिम सरिता में बहते विलास, विनिमय सुख के हिमखंड विदा।

    आकांक्षाओं के झंझा के, झकझोर झपेट प्रचंड विदा॥

    चिरपरिचित हृदय देश अपनाने का, वह विजयोल्लास विदा।

    उस प्यारे शिशु के गिर-गिर पैरों चलने का अभ्यास विदा॥

    जिसमें मैं गुड़ियों से खेली, मेरी ममता का गेह विदा।

    जिन आँखों की मैं पुतली थी, उन सुहृद जनों का स्नेह विदा॥

    वह छिपछिप कर उठनेवाली, मन की आनंद हिलोर विदा।

    मेरे मानस में बंदी होनेवाले वह चितचोर विदा॥

    प्यारे दामन की पट्टी से, बाँधे चोटों की टीस विदा।

    उस मरु प्रदेश में खोई सरिता धारा के वारीश विदा॥

    जो नहीं सके पुनः बाग में, मेरे विहग वसंत विदा।

    घेरे-घेरे जो फिरता था मुझको, दिव्य दिगंत विदा॥

    वह क्रीड़ा में कपोत के उड़ने पर कुछ खिंची कमान विदा।

    जिसको पी-पी कर मस्त हुई मैं, वह मादक मुस्कान विदा॥

    मोहन मंत्रों से अंकित उन अलभ्य अधरों की छाप विदा।

    उन कुंजों के एकांतवास के अभिनय, प्रेमालाप विदा॥

    उस मेरी स्वप्न कहानी पर, उनके विस्मय का रंग विदा।

    अलि आलिंगन से मुकुल-अधर पर, हल्की हास्य तरंग विदा॥

    कुंतल में कलियाँ गूँथ-गूँथ कर, करनेवाला प्यार विदा।

    उपहार हार मेरे उर का वह, यौवन का श्रृंगार विदा॥

    विस्मृति सागर में डुबा रही हूँ, हठ कर आती याद विदा।

    वह लहरों सी उठ आती है, इंगित से बुला सनाद विदा॥

    वे हिचकी बनकर आते हैं, आँसू बनकर हो गए विदा।

    वे पीड़ा बनकर उठते हैं, क़िस्मत बनकर सो गए विदा॥

    स्वच्छंद विहग की सदा अपरिमित, ऊँची सुखद उड़ान विदा।

    नैराश्य-निशा का कभी होनेवाला सुखद विहान विदा॥

    नव-तरल-तरंग-तड़ित बहती, तरनी के परिचित कूल विदा।

    प्रतिकूल-प्रवाह-प्रगति-नौका के पूर्व पवन अनुकूल विदा॥

    भ्रांति विदा, शांति विदा, अपनी भोली भूल विदा।

    मेरी मुरझाई आशाओं की समाधि के फूल विदा॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : कविता सदी (पृष्ठ 64)
    • संपादक : सुरेश सलिल
    • रचनाकार : गुरुभक्त सिंह 'भक्त'
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संस
    • संस्करण : 2018

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