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साओन-भादव : रस तरंगिणी

saon bhadav ha ras tarangini

सुरेन्द्र झा 'सुमन'

अन्य

अन्य

सुरेन्द्र झा 'सुमन'

साओन-भादव : रस तरंगिणी

सुरेन्द्र झा 'सुमन'

और अधिकसुरेन्द्र झा 'सुमन'

    संयोग शृंगार

    'साओन-भादव' भरल मेघके देखि सहसा प्रकृति-युवतीक वयस हृदयमे बसि

    जाइछ, जाहिसँ विवश भऽ नव-आशा-जिज्ञासा मनके आन्दोलित करय लगैछ। तड़ितक

    कटाक्षमे, कदम्बक पुलकमे जलदावलीक आकुल अलकमे प्रेम वासनासँ वासित प्रेयसीक

    रूप-जीवन सहजहिँ आकर्षणक केन्द्र बनि जाइछ।

    केवल शोभे वा हावेभाव नहि, प्रकृति-प्रिया आकाश-पत्रमे वक-पाँतीक रूपमे

    मोती सन अक्षरमे प्रेम-पत्र लिखबो आरंभ करैत छथि, जकर आखर नित्य-नवीन

    प्रेमीक आँखिएँ पढ़बाक योग्य, बारम्बार दोहरयबाक योग्य।

    आँखि जहाँ धरि पाँखि पसारि उड़ैत अछि, एके रस, एके दृश्य ओकरा

    लुब्ध-विमुग्ध करैत छैक। चंचल स्रोतस्विनी सिन्धुक संगमक उल्लासमे तरङ्गित होइत

    अछि, वन-वल्लरी समीपवर्ती तरुक बाहु-शाखामे लतरैत-चतरैत अछि, स्वयं चिरसुन्दरी

    वसुन्धरा वासकसज्जा नायिका जकाँ ऋतुक अनुकूल सूगापंखी साड़ी पहिरि, दूभिक

    मखमली सेज सजाय, प्रियतमक प्रतीक्षामे उच्छ्वसित भऽ उठैत छथि!

    ओम्हर दिन-नायक-रजनी नायिकाक संग मेघक रेशमी चादरि घटाटोप कऽ

    तानि एकाकार भऽ अद्वैत रसानन्दक अनुभव कऽ रहल छथि। मेघक घनान्धकारमे

    दिन रातिमे कोनो भेद नहि रहय पावसक सहज चमत्कार थिक।

    एहन रस भरल साओन-भादवके प्रकृति-युवतीक कोन वयस मानल जायत?

    विप्रलम्भ-शृङ्गार

    शृंगारक शरीर जँ संयोग तँ वियोग थिक प्राण। प्राप्तिमे अनुराग सीमित-केन्द्रित भऽ

    जाइछ, किन्तु अभावमे असीम व्यापक! नख-शिख रूप-कल्लोलमे जे जतेक

    रस-सिन्धु उमड़ौक से सभ अँटि-घटि जाइछ वियोगिनीक आकुल प्रेमाश्रुक एक

    बिन्दुमे! सुतरां साओन-भादबके सोहागिनि प्रकृतिक भरल वयस कहि, पुनः ओकरे

    वियोगिनीक! सजल आँखि मानल गेल अछि एवं रूप-जगतसँ भाव-भुवनमे कल्पनाक

    अवतारणा कयल गेल अछि।

    प्रकृति प्रिया वियोगिनीक वेशमे ठाढ़ि छथि। हुनक सजल आँखि साओनभादबक

    रूपमे आकाशके छापि लेने अछि। विरहक तापस जे हृदयक भाफ बनल आषाढ़

    प्रथम दिवसमे ऋतुवायुक सहानुभूति पाबि घनीभूत भऽ गेल, एवं क्रमशः पावसक

    पलक पर उतरैत बिन्दु-बिन्दु जीवन-यौवनके टप-टप गलबय लागल! मेघ, जे करुण

    शब्दे गलि-गलि कय बरसि रहल अछि, आन किछु नहि, हुनकहि व्यथापूर्ण मार्मिक

    वेदनाक कथा कहि रहल अछि।

    युगपूर्व तपोवनवासिनी शकुलन्तला, जे पति दुष्यन्तक विस्मृति-परितापसँ कानल

    छलीह, आदिकवि बाल्मीकिक आश्रमक साक्षात्कविता मैथिली, जे करुणाक आदि

    स्रोत बनलि छलीह एवं बृन्दावनक प्रेम-योगिनी राधा, जे व्रजसुन्दरक विरह-बह्निमे

    तपि-तपि बरकलि छलीह, हुनके लोकनिक अश्रुकणके समेटि बटोरि युग-युगसँ आइ

    धरि पावसक मेघ बरस रहल अछि?

    वीर

    'वीरभोग्या वसुन्धरा' तँ प्रसिद्धे अपन जीवनहुक आभोग भोगि सकैछ तँ वीरे, इहो

    सिद्धे। पलायनवादी कायर कपूत, अथच आक्रामक क्रूर भूत-दूत दूहू धरतीके परती

    बना दैत यदिच उत्साह-धनी वीरक सर्वथा विरलता होइत। किन्तु वसुन्धरा बन्ध्या

    नहि! समय अयने क्षमा-माधुर्यहुके तेज-ओजक आवश्यकता पड़िते छैक—भय-उत्पात,

    रौद्र-उत्पीड़नके मेटयबा लेल उत्साही वीर उद्धारकक आह्वान युग-युगके करहि पड़ैत

    छैक। एतय ऋतु-जगतहुमे पावसक गुरु-गम्भीर मेघध्वनि वीर रसनायक आवाहान

    गर्जन रूपमे सुनि पड़ैछ।

    छनहिमे वातावरण बदलि गेल। अत्याचारक दारुण आतप प्रतीकारक वन

    निविड़ छायामे नुकाय-बिलाय लागल! जतय किछु पूर्व लोकतापी ग्रीष्मक उद्दाम

    शासनमे जीव-जन्तु तरु-तृण जरि-मरि रहल छल, ततय लोकरोषक अन्तर्वांष्प घनीभूत

    क्षितिजसँ व्योम धरि उमड़ि आयल! सुरपुरक शांत पौरुष-पिण्ड जेना पिघलि उठल हो!

    लगले मेघक धनुष तनि गेल! बिन्दु-बिन्दु वाक झरी लागि गेल। ग्रीष्मक सैनिकक

    रुण्ड-मुण्ड खसय लागल! नील घनघटाक ढाल बिजलीक तीख तरुआरिक धार

    रणरंगके औरो गाढ़ बना गेल।

    हन्त! ग्रीष्म हमलावर फौज सभ कटि-कुटि गेल। ओकर अजस्र रक्त-धारसँ,

    पावसक रण-सागरक हिल्लोलसँ, जेना विश्व दहा भसिया गेल हो!

    साओन-भादव, जेना ओही तेज-ओज भरल, उत्साह-तरल रणगीतक भ्रुवा बनि

    गेल हो!

    करुण

    जीवनके दिनमान मानी तँ रौद-छाया दुहूक दृश्य देखहि पड़त। दिनकरक उज्ज्वल

    ज्योति-पिण्डक निरीक्षकके मिल धब्बाक अनुभव होइतहि छैक। जीवनक पूर्णिमा

    पक्षके अमा-कक्षाक परिक्रमा करहि पड़ैत छैक। उल्लासक तुहिन-पिण्डके शोक-विषादक

    तापमे गलहि पड़ैत छैक।

    वैज्ञानिक कहैछ जे जीवनक संचारे थिक ताप। ठंढ़ायल तँ मृत्यु रेचना,

    गरमायल तँ जीवन चेतना। कवि-कलाकार सहजहिँ मिलन-मेलनाके प्रणयक अन्त

    चिरविरह वेदनाके प्रेमक अमर प्रेरणा मानितहिँ छथि। भक्त जन स्मृतिक हेतु

    दुःख-शोकक आह्वान करताहे, विस्मृतिक लेल सुखके दोषी कहताहे। काव्यक प्रेरणा

    सोत तँ वेदनाक घाटियेसँ बहत आयल अछि—‘शोकः श्लोकत्वमागतः' आदिम

    कवि-अनुभूति थिक।

    ऋतअहुमे वर्षा तँ वेदना-द्रवित हृदयक प्रतीके मानल गेल अछि। नूतन, पुरातन

    प्रत्येक युगक कवि पावसके शोकविषाद सूत्रक टीका भाष्यक रूपमे निरूपिते करैत

    आयल छथि।

    उदाहरणार्थ—महाभारतक पृष्ठभूमिमे देखी तँ अश्रुमुखी दिवा-उत्तरा

    प्रियतमदिवाकरक दर्शनलेल विकल-विह्वल क्षितिजक अन्तःपुरमे कतहु मूर्च्छित पड़लि

    अछि। मेघक चक्रव्यूहमे जकर प्राणाधिक झंझा-महारथीक बिन्दु-शर-वेधित अस्तोन्मुख

    निष्प्राण बनल अछि, तकर शोक-महासागरक माप की कोनो पद तुकक इंचसँ कयल

    जा सकैछ? जाहि दुर्दिन-ग्रस्त आशा-दिशामे भविष्य चन्द्रहुक दर्शन सम्भावना नहि,

    ओहन चिरशोकवती विषादमयीक तुलना निरन्तर-वर्षिणी वर्षाऋतु कदाचकिचिंत कऽ

    लिअय।

    आदि काव्यहुक फलक पर यदि दृष्टि दी तँ ओतहु तेहने करुणाघन दृश्य

    अंकित भेटत। मेघ-व्याध बिन्दु-वाणक झरी लगा देलक, दिनपति क्रौंचक जीवनज्योति

    मिझा-पझा देलक। दिवारी सहचरीक करुण वेदना आदिकविक प्रथम शोकके चरम

    कोटि पर पहुँचा देलक। अहह! असह शोक तापक निविड़तासँ मुनिक संयम कठोर

    हृदय शिलोच्चय सहसा जेना पिघलि चलल हो, से तेना, जेना कागतके करुणाक

    वन्यामे दहा-बहा देबाक होइक!

    की ओहि वेदना-परम्पराक प्रवाह आइ धरि कवि-कविताक उर-देश डुौबने

    नहि अछि? साओन-भादबक 'ई भर बादर माह' ऋतु की, सहृदयक हृदयके आइधरि

    उबडुबौने नहि अछि?

    विषादमी हि चिरप्रश्नक प्रतीक बनि ठाढ़ अछि।

    हास्य

    मनोविकारक एक अपूर्व प्रकार भेटत हासमे। कखनहु जखन अनुकूल स्थितिक

    रति-राग संग प्रयुक्त होयत तँ मूल रसके प्रगाढ़ करत, उद्दीपना देत, विशेष संचारशील

    बनाओत। यदिच पुनः प्रतिकूल स्थितिक रस-भाव आदियहुमे संयुक्त बनत तँ

    प्रतिभा-प्रौढ़ आधारे सिद्ध होयत। शकुन्तलाक शृंगारिक मोहकेँ, अथवा च्यवनक

    रागात्मक मतिभ्रमके खटमधुरक रोचकता एहि हास्यक सिरकासँ भेटैछ। एहिना

    वात्सल्यक बालचापल्य दशरथक घर-आङनके अशेप धवलित करैछ, कृष्णक शिशु-सुलभ

    चांचल्य यशोदाक बन्धन-मोचन लीलाक विशेष उपकरण बनैछ। तहिना रौद्रमूर्ति

    परशुरामक क्रोधाग्निके उद्दीपित करबामे लक्ष्मणक हास्य-व्यंग्य एवं दुर्योधनक ईर्ष्या

    ज्वालाके जगयबामें द्रौपदीक हासोक्ति 'शुष्केन्धनमिवानलः' केर कहबी चरितार्थ

    करैछ। कखनहु कापुरुषक भयके वीरक उपहास योग्य वस्तुक प्रति घृणावैरूप्यसँ

    वैराग्यक योग जगयबामे हासक उपयोग होइछ। हास्यक इएह विविध विध योग-प्रयोग

    साहित्यपथक प्रशस्त पाथेय मानल जाइछ—बीच-बीचक विश्राम-वृक्ष जानल जाइछ।

    करुण सन एकाध रस एकर परिधिसँ बहिर्भूत अछि अवश्य, गाम्भीर्यसँ कने फराक

    रहय चाहत, उदासीके अस्पृश्य बुझैत रहत अवश्य, परंच मानव-प्रकृतिक तथ्य

    सर्वथा विलक्षणता रखैछ जे सृष्टिक प्राणी मात्रमे राग-विराग, संग्रह-त्याग, भय-क्रोध

    आदि सभ भाव-विकार भेटत, किन्तु हँसेछ हँसबैछ मानवेटा। ते मानय पड़त हास्य

    रस-जाहिमे स्मित हास-अतिहास-अट्टहासक सब प्रकार अछि-हास-परिहास, व्यंग्य-

    कटाक्ष, कूट-कपटोक्ति सभक उपचार अछि—मानव रुचिक सबसँ अधिक चटकारी

    अँचारे थिक जे सर्वथा रोचक, उद्दीपक एवं अन्यान्यरस ग्रहणक प्रेरक।

    ऋतुक रंगमंचहुकेर हास्य-नाटक अभिनय-पटुता देखबा योग्य। साओन-भादवक

    वर्षा-बाढ़िमे जेना हास्योक तटबन्ध टूटि छूटल हो। जेम्हर देखू, हंसी-हंसी! आकाश

    हँसि रहल अछि बगुलाक धवल पाँति मे। धरतीक हँसी फुटैछ क्यौलाक दन्तुरित

    विकासमे, चर-चाँचर कुमुद-दन्तावली लय खिलखिला रहल अछि, नद-नदी कलकल

    ध्वनिसँ हँसेछ तँ द्रुमवन पल्लवी अधर-रेहसँ मुसकिया रहल अछि! जेना बिन्दु-बिन्दु सँ

    प्रकृतिक हास्य झहरि रहल हो।

    कने दोग-दागसँ प्रकृतिक हास्य खेला देखैत चलू।

    अद्भुत

    मनोरंजनक मूलमे निहित अछि कौतुक-कुतूहल। कुतूहलक आश्रय अछि चमत्कार

    चमत्कारे थिक रसक अन्यतम तत्त्व। 'रसे सारश्चमत्कार: '-आचार्य नारायण सन

    कृती आचार्यक उपलब्धि थिकनि, स्पष्टतया रसमात्रमे चमत्कारक प्राणवत्ता सिद्ध

    करैत निर्णय दैत छथि—'सर्वत्राऽप्यद्भुतो रसः’।

    वस्तुतः जहिना रस चमत्कारक सहचर-परिचर तहिना अलङ्कारो ओकर

    चर-अनुचर। विच्छित्ति तँ चमत्कृतिक पर्याये थिक, उत्प्रेक्षा वा अतिशयोक्ति, विषम वा

    विरोध, विभावना वा विशेषोक्ति, तद्गुण वा अतद्गुण सबतरि विस्मयजनकते

    शोभाधायक। लीलापुरुषक समस्त सृष्टि कला कौतुकावह! तहिना काव्यक कल्पना,

    संगीतक स्वरसंचार, वैज्ञानिकक उद्भावना, सिद्धक स्फुटता तँ चमत्कार प्रदर्शनहिसँ,

    चित्तविस्तार विस्मयक आकर्षणहिसँ। नवीनताक नामे थिक प्राक्तन प्रकृतिक परे

    चमत्कार प्रकार।

    ऋतु-जगतमे वातावरणक परिवर्तनसँ नवीनताक चक्र घूर्णित तँ रहेछ, किन्तु ओकर

    गतिवेगक तीव्रता अबैछ अद्भुतक स्नेहाकांक्षासँ। एतय साओन-भादवक परिष्कार

    चित्तविस्फार-जनक चमत्कारमे देखू! कुतुहलनी प्रकृति-इन्द्र-जालिनीक चमत्कार-कौतुक!

    झकझक दिनमे मेघक सघन श्यामतासँ जेना रातुक स्याही पोति देने हो! स्याह खटखट

    रातिमे विद्युतक द्युतिसँ जेना दिनक दृश्य देखा देने हो! वर्षामे वीरवधूटीक अङोरा जेना

    ढेर लागल हो! खन गर्मीसँ घमघमी, तैखन झंझाप्रवातसँ थरथरी, सभ धूपछाही खेल

    देखि स्तिमित-विस्मित होयबाक प्रसंग साओन भादवहिमे संगत।

    भयानक

    प्राणीक जे सभ सहज मूलवृत्ति कहल जाइछ ताहिमे भय थिक अन्यतम। सूक्ष्मसँ

    सूक्ष्मतम एवं महत्सँ महत्तम जीवमे प्रधानतया आत्मरक्षाक प्रवृत्ति समानतया देखल

    जाइछ, जकर हेतु—बीज थिक भय-आतंक। अथच एकर भूमि अछि वस्तुतः प्रेम-ममते,

    ते कहलो अछि—'स्नेहः खलु पापशंकी। व्यंग्योक्ति अछि—‘भय बिनु होय प्रीति'।

    किन्तु भयक विडम्बना जे एकर उद्गम होइछ प्रतीकारक असमर्थतामे। ते भयक

    भावमे अन्तर्भाव रहैछ अनुकूल वस्तुक प्रति आकर्षण एवं प्रतिकूलक प्रति आस्थाहीन

    विकर्षणक। एहि द्वन्द्वक बीच अथक रस-रीति साहित्यमे अंकित-चित्रित। रसभोजमे

    कटु-अम्ल जक उद्वेजक रहितहुँ सहेज'क योग्य।

    साओन-भादवक एक भयावह वातावरण! घन-घमण्ड गर्जनसँ कंपित लोक-जीवन

    कोना ने त्रस्त-व्यस्त होऔ? कारी-कारी बादर क्रूर पिशाची जकाँ निशाकाशके घेरि

    नेने अछि—सहसा बलाकाक विकट मुण्ड-माल गराँमे लटकौने, अंधकारक केश-राशि

    छिड़िऔने, झंझाक पंजा उठौने तड़ितक विकट दन्तावली कटकटबैत आगाँ आबि

    ठाढ़ि!

    सबतरि भगदड़ मचल अछि! सुरुज डरे छपित भेल, चान चौंकि चुप्पहि

    नुकला, तारक-दल दूर-दूर दीड़ि पड़ायल। गाछ-पांत थरथराइत, नदी नालाक दम

    फुलैत, धरातल डरे पानि-पानि!

    भयानक रस-विभीषिकाक एक बिम्ब मात्र गीतक अन्तरामे।

    रौद्र

    प्रलयंकर रुद्र यदि शुभंकर शिव रूपे पूजित होथि, आद्या करालिका कालिका यदि पुनि

    त्रिपुरसुन्दरी षोडशीक रुचि-रोचित होथि तँ क्रूर क्रोधी रौद्रो यदि रस-माधुर्यमे योजित

    हो तँ असंगति कतय?

    मानव-मनक विकारमे क्रोध अनिवार्ये। से नहि हो तँ कामक उपलब्धिक

    निर्बाधता कोना? क्रुद्ध नहि तँ युद्धावेशक प्रसंगे की? ‘अवन्ध्यकोपस्य निहन्तुरापदाम्–’

    प्रशस्तिक स्वस्ति कोना?

    'कामात्क्रोधः' रहओ, किन्तु वास्तविक हेतु तँ 'अन्यायात्' सैह चरितार्थ रहैछ।

    सेतुबंधी रामक रोष, दुःशासनध्वंसी भीमक क्रोध, अफजल-मर्दी शिवाजीक कोप

    अथवा देशद्रोहीक प्रति देशभक्तक विक्षोभ जे काव्यके ओजस्वी तरस्वी बनबैछ ते

    क्रोधमूलक रौद्रक मूल्यांकन कवि-भावुक दृष्टिमे ककरहुसँ कनिअहु कम नहि।

    एतय किछु प्रश्न-जिज्ञासा :

    साओन-भादब की कोनहु विसङ्गतिसँ कुपित काल-पुरुषक तनल कुटिल

    भृकुटि तँ ने थिक? बिजली ककरहु पर तमतमा कऽ उठाओल करेन्ट-दण्ड तँ ने थिक?

    मेघक गर्जन-तर्जन ककरा पर? झंझानिलक डाँट-डपट, के एहन दुरन्त दोषी, जकरा

    पर?

    बीभत्स

    घृणा जकर स्थायी भाव थिकैक, जकरा देखि-सुनि लोक आँखि-नाक मुनबाक चेष्टा

    कऽ उठैछ, ओहने ओहन जुगुप्सित वस्तु जकर आलम्बन-उद्दीपन थिकैक, ताहि

    बीभत्स आलंकारिक लोकनि कोना रस मानलनि? रस, जकरा आनन्दक प्रतीक

    मानल गेल अछि—ब्रह्मानन्दक सहोदर कहल गेल अछि!

    प्रश्न अछि स्वाभाविक, किन्तु उत्तरक हेतु तर्क-बहस जरूरी नहि। उदाहरण वा

    नजीर देखयबे पर्याप्त। यदि सत्य बीभत्ससँ रस-कोविद घृणे करैत रहितथि तँ महाभारतक

    युद्धपर्वक कतोक पृष्ठके नोचय फाड़य पड़ितनि वा रामायणक लंकादर्शनमे हनुमानके

    जाहि आसुरी सभ्यता (!) दर्शन भेलनि ओहि स्थलके बाल्मीकि, तुलसी, चन्दाझा

    धरिके 'अदर्शनं लोपः' सूत्रक उदाहरण बनबय पड़ितनि।

    ‘साओन-भादव’कं रूपमे एहिठाम पापक परिपाक स्वरूप प्रकृतिक गलित-पचित

    रूपक परिकल्पना कयल गेल अछि। दृश्य विचित्र अछि—प्रकृतिक सम्पूर्ण आकृति

    कुष्ठीक रूपमे देखल जाइछ। मेघक घाओसँ पूति यत्र-तत्र धारा प्रवाह बहि रहल

    अछि। कतहु बिजुरीक रूपमे चरक फूटल अछि। इहो स्पष्ट अछि जे कादब करा

    बूझि रहल छी से प्रकृतिक गलित गात्रसँ बहि-बहि भूमि पर जमल पीजुए थीक!

    शिव-शिव! एहेन दशाके देखबाक साहसो नहि। हंस बेचारे उड़ि पड़यलाह

    (वर्षा ऋतुमे हंसक मानस सरोवर यात्रा प्रसिद्धे)! नदीक हृदय घृणासँ कलुषित भऽ

    गेल-कदुआ गेल! आकाश जलक छलसँ थूक फेकैत अछि, जाहिसँ सम्पूर्ण स्थल

    पिच-पिच भय गेल।

    रोग बुझि पड़ैछ असाध्ये भऽ गेल। हँ, शरद चिकित्सकटा एहन छथि जनिक पैर

    पड़थि तँ प्रकृतिक शरीर पुनि निर्मल-नीरोग बनि सकतनि। अथवा रोगी साओन-भादबक

    लेल–‘औषधं जाह्नवीतोयं वैद्यो नारायणः स्वयम्।'

    शान्त

    रसवादक प्रवर्तक नाट्यशास्त्री भरत रागात्मिका वृत्तिक अनुरंजनहिसँ रस-व्यंजना

    जनबैत, ‘शान्त' के अभिनयसँ एकात कय देल। परंच गति विरागात्मक निवृत्तिमार्गहुमे

    गम्यता छैक—एकर पुष्टि लक्षण क्षेत्रमे मम्मट विश्वनाथसँ जगन्नाथ धरि, एवं लक्ष्य

    क्षेत्रमे व्यास-कालिदाससँ गोकुलनाथ धरि, सबतरि श्रव्य होइत आयल। शम-निवृत्ति

    पुनि प्रसाद-वृत्तिक निमित्त रहल, सहचारी निर्वेद स्थायी भावक अधिकारी बनल।

    सुतरां बौद्ध-जैन एवं सिद्ध-साधक लोकनिक काव्य-नाट्य-गीति-रीति सर्वत्र शान्तिक

    रस-स्निग्ध वितान तनि गेल राशि-राशि भक्त-भावुक विश्रान्तिक सहज अनुभूति

    उपलब्ध कयल।

    प्रकृत ऋतुगीतमे साओन-भादबक साधनाक एक झाँकी :—

    घनघटा जनिक जटा, विद्युत जनिक धौत वल्कल, नभ-गंगा-जल भरल नदी

    जनिक कमण्डलु—ओहि त्रिकाल-स्थायी, बलाका-माला पर घन-ध्वनिक मन्त्र जपनिहार,

    गगन-गुफाक जटिल यतीक दर्शन कऽ अपनाके पवित्र करू।

    एही सभ साधनाक परिणाम थिक जे आब ऋतु-योगी 'स्थित-प्रज्ञ'

    स्थिति आबि गेलाह। ते तँ दिन-रजनीके एकाकार करैत घनश्यामक अनवरत

    ध्यान धरैत, संचित रसक त्यागसुखक निदर्शन बनि गेल छथि।

    'सा मा शान्तिरेधि'

    वात्सल्य

    प्रेम थिक परात्पर परमेश्वरक भावात्मक रूप। तै तँ 'खं ब्रह्म'क घोषणा कयनिहार,

    निर्भाव आत्मस्थितिमे अवस्थित योगिओ लोकनि प्रेमक योगक्षेमके अस्वीकार नहि

    कऽ सकलाह।

    यैह प्रेम भिन्न-भिन्न आलम्बनक आलम्बने नाना आकार-प्रकारमे प्रकट होइछ।

    रति-अनुराग, स्नेह-वात्सल्य, श्रद्धा-भक्ति सब प्रेमक छवि-छाया थिक। ओहिमे सीमित

    व्याप्य, वर्ग विशेषे धरि ग्राह्य; ते भाव रूपमे परिगणित। जे असीम व्यापक,

    सर्वसाधारण-संवेद्य से रसरूपमे गृहीत। सतीक पतिभक्ति श्रद्धामूलक भेने भावमे

    प्रणयिनीक अनुरक्ति शृंगार परिणत होइछ। कहिओ श्रद्धा-भक्ति जकाँ वात्सल्यो

    'भाव'क सीमामे पड़ैत छल। आगाँ चलि कऽ एकर लक्ष्य-क्षेत्रक व्यापकता एवं सामग्री

    समग्रता देखि आचार्य मुनीन्द्र एकरा रस रूपमे प्रतिष्ठित कयलनि।

    प्रकृतिमे प्रियाक मधुरिमा तँ देखल गेल छल, एतय ओकर वात्सल्यक महिमा

    दिस दृक्पात करू।

    साओन-भादबक स्नेहांचलमे ममताक कते तानी-भरनी! ऋतुए थिक स्नेहमयी

    प्रकृति-जननीक प्रेमद्रवित पयः-स्निग्ध आँचर, जतय ग्रीष्मक पाँतरमे पड़ल विश्वक-शिशुके

    विश्राम भेटैछ, रौद्र-शीतमे टाँट-आँट जगत जीवके सरस छाया भेटैछ। भूखल-प्यासल

    संततिके खैबा-पीबाक ओरिआओन ममतामयी प्रकृतिक हाथे कते जतनसँ कयल

    जाइछ!

    बिन्दु-बिन्दु हृदयक रस दूध पिऔनिहारि, मेघक अंचल छायामे अकाल-विकालसँ

    बचौनिहारि, चिरवत्सला प्रकृति जननीक एहि वर्षा ऋतुवयसहुक प्रति श्रद्धापूर्ण नति-प्रणति।

    (प्रेमा) भक्ति

    व्यासदेवक समाधिभाषा भागवतमे उद्भासित, जयदेवक गीत-बाँसुरीमे वादित एवं

    अभिनव जयदेवक कोकिल-काकली अनुनादित राधा-माधवक जे अद्वैतामृतवर्षिणी

    केलिकला भक्त-भावकक निभृत हृदय-निकुंजमे निरन्तर ध्वनित रणित होइत आयल,

    ओकर पन्द्रहम शताब्दी धरिक लक्षणाचार्य लोकनि 'देवादिविषया रतिः' कहि भावभूमिकेमे

    अन्तर्भावित करैत रहलाह। किन्तु गौरांग महाप्रभु कृष्ण चैतन्यक अवतार होइतहिँ

    प्रेमाभक्ति, रसे नहि रसराजक आसन ग्रहण कयलक। अगाध प्रतिभाक धनी गौड़ीय

    वैष्णव रसशास्त्रीक सुवर्ण लेखनीसँ विलक्षण लक्ष्य-लक्षणक उज्ज्वल रस-मणि अपूर्व

    प्रतिष्ठाप्राप्त कयलक! ओहि युगक प्रत्येक काव्य-विधामे काव्य नाटक चम्पू गीतरीति

    छन्दबन्धमे, भारत-भारतीक जेना शृंगार-हार बनि गेल हो!

    एतय रति-अनुराग स्थायी भाव आदिरसक समाने, परंच आलम्बन मात्र

    राधा-माधवके बनाय हुनक सखा-सखी सहचर-सहचरीसँ संकुल, गोकुल-बृन्दावनक

    पुरपथ-वनवीथीके सजाय ब्रजक लघु गागरमे रसक विशाल सागर अँटा देल गेल!

    समस्त सृष्टिक रूप-शोभा जेना समेटि कऽ गोकुल-गलीसँ बृन्दानिकुंज धरिक धूलिमे

    लोटा रहल हो! जेना साहित्य-सरोवरक यावतो स्वर्ण-सरोज बृन्दा-वापीमे संचित

    अंचित कऽ देल गेल हो! जीवनक यच्च-यावच्च माधुर्य निचोड़ि जेना व्रज-रजमे मिला

    देल गेल हो!

    प्रकृति-पुरुषक समग्र दर्शन, नर-नारीक यावतो भाव-अनुभाव, रस-अलंकृतिक

    समस्त अनुभूति-विच्छिति जेना राधा-माधवके केन्द्र-बिन्दु मानि व्यासवृत्त बनि गेल

    हो!

    तखन पुनि ऋतुचक्रवर्ती साओन-भादवके एहि रसक अनुवर्ती बनि अपनाके

    कृतार्थ करब सर्वथा संगते-समुचिते।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 149)
    • संपादक : चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’/ शंकरदेव झा
    • रचनाकार : सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2012

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