प्रियतम की हथेली के प्रति
priytam ki hatheli ke prati
जन्मों पुराना व्रत हूँ मैं
तुम्हारी अँजुरी से पी लिया जल
घूँट भर
त्योहार हो गया जीवन...
सदियाँ सोख कर बना है मेरी पुतलियों का गाढ़ा सियाह
जाने कब से देखती रही अपलक संसार को
ज्यों देख सकता है समय बिन ठहरे
बंद घड़ी के काँटों को
मेरी कविता के गलियारे में मुर्गे की बाँग तक सुनी है
कुछ उनींदे लोगों ने
दो सौ बरस तक चलती रही मेरी तीजा की रात
मैं जागी रही निर्जल
सितारों से पूछती रही उनके देश का हाल
मेघों के निकट रही बहुत
गाती रही सूखे कंठ लोकगीत बौछार के
द्वार पर बाँधती रही ऋतुओं के फुलहरे
देहरी पर नयन जलाए काटती रही अँधेरे की चाल
तोड़ती रही संसार के नियम
प्रतीक्षा का कठोर व्रत निभाती रही
मैं जागी रही निर्जल दो सौ बरस तक
थके-प्यासे यात्रियों से करती रही जल की बात
प्यासा ही नहीं चला जाता सदा कुएँ के निकट
कुआँ भी पुकारता है प्यासे को
रुई के फाहे को पुकारता चोटिल घुटनों का लहू
कागा को पुकारतीं सूनी छतें
नींद को पुकारते रहे मेरे स्वप्न
मैं अपने रतजगों में तुम्हें पुकारती रही
तुम्हें पाने का बालहठ कर बैठे जो, वह नादान है
तुम अमेरिका नहीं जिसे कोई कोलंबस पा जाए
खो जाएँ जहाज़ों के बेड़े जहाँ
वह अटलांटिक हो तुम
मणिकर्णिका घाट नहीं जहाँ जीवन के हारे पाते हों मोक्ष
विश्वनाथ की उलझी हुई गलियाँ हो तुम जिसकी धूल फाँकते खो जाए कोई संन्यासिन
तुम सतपुड़ा के सघन वन हो
सागौन की लालसा में काट न ले कोई लकड़हारिन
एक पत्ता जूड़े में खोंसे
माँग में तुम्हारे हरे को भरे वनकन्या
तुमसे शृंगार रचाए
हृदय नहीं माँगा तुम्हारा
मैंने माँगी हथेली
कौंधती है आँखों में विस्मय की बिजली
धड़कन धमकती बादल गरजते
बेमौसम हो जाती बरसात
कितने तो रूप इस हथेली के
चंद्रमा में जितनी कलाएँ नहीं!
सुबह का डाकिया डाल कर चला जाता
मेरी देहरी पर धूपीली चिट्ठियाँ
तुम्हारी उँगलियों के बीच की दरारों से
झर पड़ते ऊष्मा के पीले पोस्टकार्ड
मैं सूर्य की इच्छा करूँ
छज्जे पर दिन उतर आता है
ईश्वर की इच्छा करूँ
खाने की थाली लिए माँ चली आती है
मैं चाह लूँ दूर टिमटिमाता एक सितारा
तुम्हारी हथेली आकाश हो जाती है
जोगी !
सुबह उठते ही अपनी हथेली तो देखो
तुम्हारी रेखाएँ ओढ़े मैं ऊँघ रही हूँ
बेसुध !
ज्यों सोता है नवजात शिशु पिता की थपकियों की लय में निश्चिंत
देखो तुम!
एक बार अपनी हथेली दुपहरी की चटख धूप में भी
रगों में आलस भरे उलटती-पलटती हूँ तुम्हारी रेखाओं के बिछौने पर
ज्यों करवटें बदलती है नव-विवाहिता
चादर की सलवटों पर
साँझ के ढलकते मद्धिम उजाले में देखो
सदियों की जागी थी
उठ रही अब
मैं वस्त्र बदल रही हूँ
सँवर रही
पहन रही हूँ तुम्हारी रेखाएँ
मैं जा रही हूँ तुम्हारी हथेली के अंतिम छोर तक
चंद्रमा संग बैठूँगी अंतरिक्ष में पाँव लटकाए
यह रतजगा नहीं हृदय की जाग है, जोगी !
तीजा का व्रत अब पूरा हुआ
मेरे तलुवे और एड़ियों पर छपी धूल धुलेगी
बैठूँगी जल में पाँव डुबोए
मैं जान गई हूँ
तुम्हारी तर्जनी से एक नदी निकलती है
- रचनाकार : बाबुषा कोहली
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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