एक अँधेरी गुफ़ा से उठता
रात्रि का चिंघाड़
कंपित होता अस्तित्व
और दरकते पर्वतों के सीने
वह निविड़ घनघोर कालिमा
जिसमें बसता
एक प्रेत का संसार
वह कसमसाता और चिल्लाता
रोता घड़ी को और चुप हो जाता
सोचता अपनी आँखों को और मुस्काता
उस वेदना में बस थी तड़प
गहरी गहरी अत्यंत गहरी
न कोई शक्ति
न कोई दृष्टि
देखने को बस था तिमिर
अनुभवों में बस पाश थे
रगड़ खाती बदन पर रस्सियाँ
जंगी धातु की ज़ंजीर और
कंटकी कुंडियाँ
सर पर सवा सौ मन का बोझ था
सीने में चुभते शूल थे
बदन से रिसता था मवाद
और पैरों के नीचे
दोज़ख की आग
उसकी चिंघाड़
ज्यों चंद्रकौस राग
कंपन करता था गगन
बादल सर धुनकर रोते थे
वह मुक्ति-मुक्ति चिल्लाता था
और हर मुक्ति से उकताता था
वह मुक्ति जो कभी न संभव थी
वह बंधन जो कभी न खुल सकता था
वह भ्रम जो कभी न सच हो सकता था
वह दुःख जो कभी न बिसरता थी
वे सपने जो मन का धोखा थे
वह सच जो धोखों का मन था
वह मन जो धोखों का फल था
वह फल जो धोखों का फल था
वह जग जो एक भुलैया था
वह मन जो एक नचैया था
वह दुःख ही बस एक सहारा था
वे सारे अश्रु, सारा मवाद हमारा था
- रचनाकार : पुरुषोत्तम प्रतीक
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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