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प्रेमपत्र

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सुशोभित

सुशोभित

प्रेमपत्र

सुशोभित

इसलिए नहीं

कि तुम लिखती थीं कविताएँ!

इसलिए कि तुम्‍हारी आँखों में था

सजल सम्मोहन और आवाज़ में

प्रतीक्षा का ताप।

या इसलिए कि अपने दुपट्टे में

सम्हालती थीं तुम फ़ीरोज़ी लहरें

और यूँ चुराती थीं बदन

मानो मन पर भी

पहना हो कपास।

और इसलिए कि

काँस की सुबहें

और सरपत की साँझें

तुम्हारे पूरब-पच्छिम थे।

जल में तुम्हारे प्रतिबिंब-सी थी

वह पुलक, जो हमेशा तुम्हारे साथ

चली आती थी, चकित करती मुझे।

जब गूँथती थीं चोटी तो

हुलसते थे चंद्रमा के फूल,

जिन्हें बड़ी बेतकल्लुफ़ी से

पुकारती थीं तुम रजनीगंधा।

और काँच की चिलक जैसी

मुस्कुराहट तुम्हारी लाँघ जाती थी देहरियाँ

जबकि अहाते में ऊँघता रहता था

दुपहरी का पत्थर

लेकिन इन सबके लिए

भी नहीं।

न, इसलिए नहीं कि

इतनी दूर से इतनी देर तलक

सोचा था मैंने तुम्‍हें कि मेरी सोच में

जैसे एक डौल बन गया था तुम्‍हारा,

एक आदमक़द तसव्‍वुर,

जिसकी एक तस्‍वीर बन गई थीं तुम

अंतत: जब कई दिनों का धान पका

न, इसलिए भी नहीं।

इसलिए तक नहीं कि

इतनी कोमलता से पुकारा था तुमने

मेरा नाम कि मैं रूई का फ़ाहा बन गया था

भींजा हुआ और बारिश मेरी छत थी

इसलिए तक नहीं।

बल्कि इसलिए कि

कोई 'इसलिए' नहीं था

दिसंबर के शब्दकोश में

उस दिन, जब मिले थे हम

केवल गाछपकी प्रतीक्षा थी

धूपधुले वर्षों के

शहद से भरी।

कि जो मैं होता तुम्‍हारे बरअक्स

और तुम मेरे तो ढह जातीं नमक की मीनारें

और पाला-सा पड़ जाता रेशम और रोशनियों पर

और एक सेब की ओट हो जाती पृथ्‍वी

और दूरियों की बर्फ़ में गलती रहतीं

मेरे हिस्‍से की तमाम फ़रवरियाँ।

कोई 'इसलिए' नहीं था।

केवल एक स्वप्न था

किंतु स्वप्न कोई कारण तो नहीं होता।

केवल एक विकलता थी

जिसके कोई वर्णमाला तक नहीं।

और केवल यह नियत था कि मैं उचारूँ

तुम्‍हारे नाम का ध्रुवतारा

हर बार जब खुले

भोर की गाँठ।

स्रोत :
  • रचनाकार : सुशोभित
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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