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प्रेम की समझ

prem ki samjh

अंशू कुमार

अंशू कुमार

प्रेम की समझ

अंशू कुमार

और अधिकअंशू कुमार

    प्यार करना आसान है

    क्यों समझना इतना मुश्किल

    क्यों हर बार

    'बहुत प्यार करता हूँ'

    कह कर, हर समझने

    वाली जगहों से ख़ाली

    लौट जाते हो तुम

    मैं जो एक औरत हूँ

    चाहती हूँ कि तुम

    'थोड़ा कम प्यार करो'

    लेकिन समझने की

    कोशिश करो!

    कब तक समझने की

    पूरी प्रक्रिया से ख़ुद को

    दूर रखे रहोगे तुम

    कब तक अपनी यह कमज़ोरी

    छुपाते रहोगे तुम?

    कि प्रेम में भी नहीं

    उबर पाते तुम ख़ुद से

    कि प्रेम में भी तुम्हारा

    इंसान होना बाक़ी रहा

    जबकि औरतों को तो

    शुरू से ही सबको

    समझना सिखलाया

    जाता रहा है

    और यह भी कि

    किसी के चेहरे के भाव

    पढ़ सको तो और अच्छा

    किसी के बोलने से पहले

    समझ लो तो उससे भी अच्छा...

    और मर्द सिर्फ़ अपने हिसाब से

    अपने मनपसंद तरीक़े से

    सब कुछ को प्यार करना

    जानते हैं और उनके प्यार

    करने भर के दंभ में ही

    इतना कुछ होता है कि

    समझने की ज़रूरत हमेशा

    ख़ाली रह जाया करती है

    ऐसा माना जाता है कि

    मर्द अगर मार नहीं रहा होता है

    तो वह प्यार ही कर रहा होता है

    और बस इतना ही कर रहा होता है

    औरतें प्यार करती हैं

    तो समझती भी हैं

    किसी से जुड़ती हैं तो

    बस जुड़ जाती हैं

    और इन्हीं

    स्वाभाविक प्रक्रियाओं पर तुम

    उन्हें बेवक़ूफ़ कहते हो

    उसे तो माँ के बक्से में पड़ी

    पुरानी साड़ी सबसे क़ीमती लगती है

    लेकिन कभी किसी पुरुष से

    शायद ही सुनने को मिला हो

    कि बक्से में आज पिता की

    लुंगी, गमछा, कपड़ा मिला

    और वह कहते हुए इठला रहा हो

    कि यह मेरे अलमीरा की

    सबसे क़ीमती वस्तु है

    असल में वस्तु, जगह, घर,

    गाय-बछड़ा, कुत्ता-कुत्ते का बच्चा

    बिल्ली-बिल्ली का बच्चा,

    आदमी-आदमी का बच्चा

    कौआ, कबूतर, ओल, लहसुन

    प्याज़, टमाटर, कुकर, कड़ाही

    सबसे प्यार करना उसका ख़याल रखना

    सिर्फ़ और सिर्फ़ औरतों को सिखलाया गया

    और पुरुषों को,

    आगे बढ़ना,

    समाज में नाम कमाना

    ख़ुद को हीरो स्थापित करना

    देश चलाना, समाज चलाना

    फ़ैसले सुनाना, निर्देश जारी करना

    मालिक बनना सिखलाया गया...

    औरतें घर की रसोई में

    एक चाक़ू भी टूट जाए

    तो परेशान होती हैं

    कई बार याद करते हुए

    टूटी चाक़ू की ख़ासियत तक बताती हैं

    जबकि वही चाक़ू जाने

    कितनी बार उसके

    ज़रा-सा ध्यान हटने पर

    उसे घाव कर चुका होता है

    और तुम पुरुष

    इन्हीं सब बातों पर

    हँसते हो, दंभ भरते हो

    और एक औरत तुम्हें

    रसोई में घिरी इंसान से

    ज़्यादा कुछ नहीं दिखती

    जबकि तुम

    उसी औरत को

    जाने कितनी बार बेवजह

    अपमानित करते हो,

    उसके दुःखी होने पर

    उसे नहीं खोजते

    घर से प्रायः बाहर निकल जाते हो

    चौराहे पर खड़े हो

    समाज देखते हो

    और घर लौटकर फिर से कहते हो

    एक औरत को समझना

    मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है

    कितने कमज़ोर और डरे हुए हो तुम

    और कितने असंवेदनशील भी...

    स्रोत :
    • रचनाकार : अंशू कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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