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प्रॉक्सी

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वेणु गोपाल

वेणु गोपाल

प्रॉक्सी

वेणु गोपाल

और अधिकवेणु गोपाल

     

    एक

    जो 
    सड़क पर गिरा था, वह
    न तो नेता था
    और
    न अभिनेता। सिर्फ़
    नेता की ग़ैर हाज़िरी में उसकी
    प्रॉक्सी कर रहा था। दरअसल

    रिहर्सल हो रही थी और ‘क़ानून और व्यवस्था’ ने
    ग़लती से
    उसे
    नाटक का ‘शो’ ही समझ लिया था और
    अपने सनातन रोल को निभाते हुए
    फ़ायरिंग करवा दी थी। और

    वह
    मारा गया था। प्रॉक्सी करते हुए।

    दो

    ऐसा कभी मुमकिन नहीं होता
    कि जहाँ
    ख़ूनी कार्रवाई का मामला हो
    वहाँ
    प्रॉक्सी से काम चला लिया जाए।

    क्रांति
    किसी नाटक की रिहर्सल नहीं होती। वह
    बस, क्रांति होती है। और
    कुछ नहीं।

    उसमें
    न तो हरी कोंपलों को बख़्शा जाता है
    और न झूमती टहनियों को। सबको
    अपने-अपने हिस्से की मौत
    झेलनी होती है। सबकी ज़िंदगी के लिए।
    अपना-अपना रोल निभाते हुए।

    तीन

    ज़्यादा लाइट मारने की कोशिश मत करो! तुम
    झूल गए हो
    कि तुम सिर्फ़ प्रॉक्सी कर रहे हो। इस
    ख़याल में मत रहो
    कि यह रोल तुम्हें ही मिलेगा।
    तुम और हीरो! आईने में चौखटा तो देखो ज़रा। बात

    सिर्फ़ इतनी है कि ‘वह’ ग़ैर हाज़िर है और
    मजबूरी में
    तुमसे काम निकाला जा रहा है। यह
    तुम्हारा उछल-उछल कर डॉयलॉग बोलना,
    एक्टिंग की बारीकियों की नुमाइश करना वग़ैरह सब
    बेमानी साबित हो जाएगा। कि उसके आते ही

    तुम 
    दर्शक बेंचों पर होंगे और वह
    असली हीरो
    सब कुछ अपने ही ढंग से करेगा। तुम्हारी
    सारी क़ाबिलियत
    तुम तक ही सीमित रह जाएगी। शो का
    कुछ भी बनेगा-बिगड़ेगा नहीं। इसीलिए तो

    कह रहा हूँ कि अपनी औक़ात पहचानो। कि तुम
    सिर्फ़ प्रॉक्सी कर रहे हो। सिर्फ़ प्रॉक्सी!

    चार

    ‘हाज़िर हूँ सर!’

    फिर कहा किसी ने। टीचर
    हैरान है कि हर बार
    यही होता है। ‘वह’ ग़ैर हाज़िर होता है—
    हमेशा ही
    और
    कोई न कोई प्रॉक्सी कर देता है। कभी
    लोहिया तो कभी जे. पी.। आवाज़
    इस तरह बना कर बोलते हैं ये लड़के
    कि ‘उसी’ का भ्रम होता है।—टीचर

    परेशान है कि आख़िर
    ‘वह’ हाज़िर क्यों नहीं होता? ये
    शरारती लड़के
    क्यों हर बार उसकी प्रॉक्सी
    कर देते हैं? काफ़ी
    रसूख़ है इनका। कुछ
    कहा भी नहीं जा सकता। टीचर

    इस-उससे पूछताछ भी करता है
    कि आख़िर ‘वह’ कब आएगा? या
    क्यों नहीं आता? अगर नहीं आएगा तो
    क्यों न उसका नाम काट दिया जाए? लेकिन

    कोई भी ठीक से जवाब नहीं देता। बस,
    कह देते हैं कि आएगा ज़रूर—एक न एक
    दिन। और
    टीचर की हैरानी-परेशानी
    बढ़ती ही जा रही है।

       
    स्रोत :
    • पुस्तक : हवाएँ चुप नहीं रहतीं (पृष्ठ 63)
    • रचनाकार : वेणु गोपाल
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 1980

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