निकटवर्ती पहाड़ के तन पर
हरी घास का अस्तर,
सुदूर पहाड़ की चोटी पर
पाइन वृक्षों की पाँत
मानो शत-शत मंदिरों के शिखर हों।
बीच से बहा जा रहा छोटा-सा पहाड़ी झरना,
जितना उसमें पानी
उससे अधिक कलरव।
घास का आच्छादन निस्पंद!
देखकर लगता है मानो प्राणहीन,
गभीर प्रशांति जैसे बिखरी है पहाड़ के तन पर।
सुदूर स्तब्ध हैं पाइन के वृक्ष
ध्यानमूर्ति बन खड़े हुए
हवा से पत्ता तक हिलता नहीं
लगता संपूर्ण पृथ्वी की स्तब्धता
यहाँ सिमट आई है
विराट स्तब्धता और श्यामल प्रशांति के बीच
तनिक-सी चंचलता ला दी है
एक झरने की जलधारा ने।
हठात् याद आता
माया का कितना बड़ा खेल चल रहा है यहाँ।
पाइन की छद्मवेशी स्तब्धता,
उसी की ओट चल रहा है
बचे रहने का कसा निष्ठुर संग्राम।
कठोर पत्थर को भेद
जहाँ मिट्टी का तनिक-सा कण
अपना जीवन-रस निःशेष कर
पाइन वृक्षों का बचे रहने का
चल रहा कैसा कठिन प्रयास!
वृक्षों के प्रत्येक मूल में
जीवन-रस के लिए यह कैसी खींचातानी,
एक-दूसरे को दबाकर छा जाता है।
प्रकाश को पाने की यह कैसी आकुलता!
घास के वन में भी है
जीवन की वही दुर्निवार क्षुधा।
घास के प्रत्येक मूल में
जीवित रहने की आकांक्षा,
दूर्वादल के श्यामल आच्छादन का हर तृण
अन्य सबको वंचित कर
प्रकाश-जल-वायु का प्यासा है।
देखने में ही पाइनतरु स्तब्ध समाधिमग्न,
देखने में ही घास के कोमल गलीचे पर
हरीतिमायुक्त प्रशांति।
झरने की चंचल जलधारा में
है प्राणों का आभास।
वहाँ संग्राम नहीं, वहाँ है गति।
लहर-लहर में गुत्थमगुत्था
जल के कण-कण में धक्कम-धक्का,
प्रबल वेग से
केवल सामने की ओर छूटा जाता है।
कठिन पाथर को भिगो,
सूखी माटी को सरस कर,
रुक्ष मूल को प्राणों का रस जुटा,
पृथ्वी के चारों ओर प्राण बिखराता,
सम्स्त प्रशांति के बीच
जीवन की चंचलता ला,
हरी घास के गलीचे को लिए,
पाइनों के मृत्युशीतल
हरित अंधकार को भेदकर,
वर्णहीन—फिर भी
हज़ारों वर्णों में विच्छुरित—जल की धारा
दिनरात किसके आह्वान पर
कहाँ बही जाती है?
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 557)
- रचनाकार : हुमायूँ कबीर
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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