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पोस्टकार्ड

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उद्भ्रांत

उद्भ्रांत

पोस्टकार्ड

उद्भ्रांत

और अधिकउद्भ्रांत

    मोबाइल

    और इंटरनेट के इस युग में भी

    अपनी धीमी रफ़्तार के बावजूद

    एक आम आदमी की तरह

    अभी बचा है उसका अस्तित्व

    और जब तक रहेगा

    आम आदमी

    और उसका दुःख

    मौजूदा लोकतंत्र की बहसों के बीच

    वह रहेगा इसी तरह

    महत्त्वपूर्ण।

    अपने बजट भाषणों में

    प्रतिवर्ष वित्तमंत्री उसका करेंगे

    ख़ास ज़िक्र,

    उसकी मूल्य-वृद्धि करते हुए

    सरकारें काँपेंगी

    और अगर कभी

    पाँच-सात सालों में

    ऐसी नौबत आने को हुई

    तो मचेगा हड़कंप

    विरोधी दलों को

    मिलेगा एक मुद्दा!

    मगर उसे

    इस्तेमाल करने वाला

    एक साधारण जन

    लुटा-पिटा करेगा महसूस

    नगरों,

    महानगरों में काम करने वाले

    करोड़ों जनों का

    अपनी जड़ों की सुधि लेना

    और भी होगा कठिन

    पिछले पचपन बरसों में

    पोस्टकार्ड की क़ीमत

    पाँच से पचास पैसे तक

    जब-जब बढ़ी है,

    तब-तब

    अनगिनत बूढ़ी आँखों में तैरतीं

    जवान कामगार उम्मीदें

    कुछ और दूरी पर

    खिसक गई हैं—

    जैसे आज़ाद भारत में

    खिसकती जाती है आज़ादी

    हर वर्ष

    इंच-दर-इंच

    इंटरनेट की दुनिया में

    पोस्टकार्ड की उपस्थिति

    एक ग़रीब और शोषित

    पीड़ित और उपेक्षित

    निरंतर हाशिए पर धकेले जाने वाले

    आम आदमी के द्वारा

    अस्तित्व की रक्षा के लिए

    किया जाने वाला

    शंखनाद है!

    स्रोत :
    • पुस्तक : अस्ति (पृष्ठ 320)
    • रचनाकार : उद्भ्रांत
    • प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हाउस
    • संस्करण : 2011

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