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पोशाक

poshak

श्याम परमार

और अधिकश्याम परमार

    खुलासा अभी नहीं हुआ कि

    राजनीति के अँधेरे में

    मेज़बान की आँख किसे आमंत्रण देगी

    यह देखना होगा

    छाया को कितना लंबा करती है मोमबत्ती

    जानना होगा

    कि आसान नहीं होगा

    वस्तुओं की पहचान कर पाना अँधेरे उजाले में

    सही उजाले के लिए क्या सुबह तक

    ठहरा नहीं जा सकता?

    तुम जो चाहते हो केवल परछाइयों के नीचे ही

    अपने को खोल कर

    तुम्हारे इरादों से सट जाऊँ

    अभी शायद यह नहीं होगा

    क्योंकि दूर अँधेरे कोने में साफ़ मालूम होता है

    तुम पोशाक बदल रहे हो

    कि वक़्त आते ही पूरी जमात के आगे खड़े होकर

    बता सको—इसने, हाँ, इसने इंकार किया था

    किसने कब और क्यों इंकार किया था

    या कौन किस लिए इंकार करता रहा है

    इसे तवारीख़ नहीं जानती

    जानती है लिखने से छूटी हुई बातें

    कि एक बात तुम भी जानते हो

    कि पूरी तरह इतिहास-रहित नहीं हुई है शताब्दी

    सही आधी या पाव शती की लकीरों पर तो

    साफ़-साफ़ कई जगह मोड़ के निशान अटे हैं

    जिन्हें शायद दिए हुए नक़्शों की मदद से तुम्हीं ने

    बताया था कि यहाँ, इस जगह मोड़ है

    जो मोड़ नहीं भी था उसे नाख़ून से खुरच कर

    तुम ने ख़ुद बनाया था

    तब भी तुम्हारी पोशाक मेरी नज़र में लगी थी

    और अब, फिर यह क्या होने लगा है तुम्हें

    कि सच के इतने क़रीब गए

    यकायक सिर्फ़ तुम्हें ही यह मालूम रहा शब्दों का नुस्ख़ा

    कि उसे उजाले के लिए कैसे इस्तेमाल किया

    जाता है

    उजाले के लिए मैंने बाहर नहीं देखा

    आज भी नहीं देखूँगा

    देखूँगा आसपास ख़ुद अपनी आँखों से

    उसके लिए अँधेरा और भी गहरा हो जाए तो हो जाए

    उजाला तो उससे अनिवार्य हो जाएगा

    और वह निश्चय ही उसी अधेरे से फटेगा

    मैं जाता हूँ

    तब शायद शब्द काम नहीं आएँगे

    कुछ और होगी चीजें जो तुम्हारी योजना में

    नहीं होंगी

    और हो जाएँगी

    स्रोत :
    • पुस्तक : निषेध (पृष्ठ 90)
    • संपादक : जगदीश चतुर्वेदी
    • रचनाकार : श्याम परमार
    • प्रकाशन : ज्ञान भारती प्रकाशन
    • संस्करण : 1972

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