मस्जिद ऐसी भरी भरी कब है
मैकदा इक जहान है गोया
— मीर तक़ी मीर
मैं तो अपनी आत्मा को भी शराब में घोलकर पी गया हूँ, बाबा! मैं कहीं का नहीं रहा; मैं तबाह हो गया—मेरा क़िस्सा ख़त्म हो गया, बाबा! लोग किसलिए इस दुनिया में जीते हैं?
लोग दुनिया को बेहतर बनाने के लिए जीते हैं, प्यारे। उदाहरण के लिए एक से एक बढ़ई हैं दुनिया में, सभी दो कौड़ी के... फिर एक दिन उनमें ऐसा बढ़ई पैदा होता है, जिसकी बराबरी का कोई बढ़ई दुनिया में पहले हुआ ही नहीं था—सबसे बढ़-चढ़ कर, जिसका कोई जवाब नहीं... और वह बढ़इयों के सारे काम को एक निखार दे देता है और बढ़इयों का धंधा एक ही छलाँग में बीस साल आगे पहुँच जाता है... दूसरों के मामले में भी ऐसा ही होता है... लुहारों में, मोचियों में, किसानों में... यहाँ तक कि शराबियों में भी!
— मक्सिम गोर्की,
नाटक 'तलछट' से
पूर्व कथन
यह जीर्ण-शीर्ण पांडुलिपि एक सस्ते शराबघर में पडी हुई थी—जिसे गोल करके धागे में बाँधा गया था। शायद इसे वह अधेड़ आदमी छोड़ गया था, जो थोड़ा लँगड़ाकर चलता था। उत्सुकतावश ही मैंने इस पांडुलिपि को खोलकर देखा। पांडुलिपि क्या थी—पंद्रह बीस पन्नों का एक बंडल था। शराबघर के नीम अँधेरे में अक्षर दिखाई नहीं पड़ रहे थे—हालाँकि काली स्याही से उन्हें लिखा गया था। हस्तलिपि भी उलझन भरी थी। शराबघर के बाहर आकर मैंने लैंप पोस्ट की रोशनी में उन पन्नों को पढ़ा तो दंग रह गया। यह कोई साल भर पहले की बात है, मैंने उसके बाद कई बार इन फटे-पुराने पन्नों के अज्ञात रचयिता को ढूँढ़ने की कोशिश की; लेकिन नाकाम रहा। हारकर मैं उस जीर्ण-शीर्ण पांडुलिपि में से चुनिंदा पंक्तियों/सूक्तियों/कविताओं को अपने नाम से प्रकाशित करा रहा हूँ—इस शपथ के साथ कि ये मेरी लिखी हुई नहीं है और इस आशा के साथ कि ये आवारा पंक्तियाँ आगामी मानवता के किसी काम आ सकेंगी।
— कृष्ण कल्पित
एक
शराबी के लिए
हर रात
आख़िरी रात होती है।
शराबी की सुबह
हर रोज़
एक नई सुबह।
दो
हर शराबी कहता है
दूसरे शराबी से
कम पिया करो।
शराबी शराबी के
गले मिलकर रोता है।
शराबी शराबी के
गले मिलकर हँसता है।
तीन
शराबी कहता है
बात सुनो
ऐसी बात
फिर कहीं नहीं सुनोगे।
चार
शराब होगी जहाँ
वहाँ आस-पास ही होगा
चना-चबैना।
पाँच
शराबी कवि ने कहा
इस बार पुरस्कृत होगा
वह कवि
जो शराब नहीं पीता।
छह
समकालीन कवियों में
सबसे अच्छा शराबी कौन है?
समकालीन शराबियों में
सबसे अच्छा कवि कौन है?
सात
भिखारी को भीख मिल ही जाती है
शराबी को शराब।
आठ
मैं तुमसे प्यार करता हूँ
शराबी कहता है
रास्ते में हर मिलने वाले से।
नौ
शराबी कहता है
मैं शराबी नहीं हूँ
शराबी कहता है
मुझसे बेहतर कौन गा सकता है?
दस
शराबी की बात का विश्वास मत करना।
शराबी की बात का विश्वास करना।
शराबी से बुरा कौन है?
शराबी से अच्छा कौन है?
ग्यारह
शराबी
अपनी प्रिय किताब के पीछे
छिपाता है शराब।
बारह
एक शराबी पहचान लेता है
दूसरे शराबी को
जैसे एक भिखारी दूसरे को।
तेरह
थोड़ा-सा पानी
थोड़ा-सा पानी
सारे संसार के शराबियों के बीच
यह गाना प्रचलित है।
चौदह
स्त्रियाँ शराबी नहीं हो सकतीं
शराबी को ही
होना पड़ता है स्त्री।
पंद्रह
सिर्फ़ शराब पीने से
कोई शराबी नहीं हो जाता।
सोलह
कौन-सी शराब
शराबी कभी नहीं पूछता।
सत्रह
आजकल मिलते हैं
सजे-धजे शराबी
कम दिखाई पड़ते हैं सच्चे शराबी।
अठारह
शराबी से कुछ कहना बेकार।
शराबी को कुछ समझाना बेकार।
उन्नीस
सभी सरहदों से परे
धर्म, मज़हब, रंग, भेद और भाषाओं के पार
शराबी एक विश्व नागरिक है।
बीस
कभी सुना है
किसी शराबी को अगवा किया गया?
कभी सुना है
किसी शराबी को छुड़वाया गया फ़िरौती देकर?
इक्कीस
सबने लिखा—वली दक्कनी
सबने लिखे—मृतकों के बयान
किसी ने नहीं लिखा
वहाँ पर थी शराब पीने पर पाबंदी
शराबियों से वहाँ
अपराधियों का-सा सलूक किया जाता था।
बाईस
शराबी के पास
नहीं पाई जाती शराब
हत्यारे के पास जैसे
नहीं पाया जाता हथियार।
तेईस
शराबी पैदाइशी होता है
उसे बनाया नहीं जा सकता।
चौबीस
एक महफ़िल में
कभी नहीं होते
दो शराबी।
पच्चीस
शराबी नहीं पूछता किसी से
रास्ता शराबघर का।
छब्बीस
महाकवि की तरह
महाशराबी कुछ नहीं होता।
सत्ताईस
पुरस्कृत शराबियों के पास
बचे हैं सिर्फ़ पीतल के तमग़े
उपेक्षित शराबियों के पास
अभी भी बची है
थोडी-सी शराब।
अट्ठाईस
दिल्ली के शराबी को
कौतुक से देखता है
पूरब का शराबी
पूरब के शराबी को
कुछ नहीं समझता
धुर पूरब का शराबी।
उनतीस
शराबी से नहीं लिया जा सकता
बच्चों को डराने का काम।
तीस
कविता का भी बन चला है अब
छोटा-मोटा बाज़ार
सिर्फ़ शराब पीना ही बचा है अब
स्वांतः सुखाय कर्म।
इकतीस
बाज़ार कुछ नहीं बिगाड़ पाया
शराबियों का
हालाँकि कई बार पेश किए गए
प्लास्टिक के शराबी।
बत्तीस
आजकल कवि भी होने लगे हैं सफल
आज तक नहीं सुना गया
कभी हुआ है कोई सफल शराबी।
तैंतीस
कवियों की छोड़िए
कुत्ते भी जहाँ पा जाते हैं पदक
कभी नहीं सुना गया
किसी शराबी को पुरस्कृत किया गया।
चौंतीस
पटना का शराबी कहना ठीक नहीं
कंकड़बाग़1 के शराबी से
कितना अलग और अलबेला है
इनकम टैक्स गोलंबर2 का शराबी।
पैंतीस
कभी प्रकाश में नहीं आता शराबी
अँधेरे में धीरे-धीरे
विलीन हो जाता है।
छत्तीस
शराबी के बच्चे
अक्सर शराब नहीं पीते।
सैंतीस
स्त्रियाँ सुलगाती हैं
डगमगाते शराबियों को
स्त्रियों ने बचा रखी है
शराबियों की क़ौम।
अड़तीस
स्त्रियों के आँसुओं से जो बनती है
उस शराब का
कोई जवाब नहीं।
उनतालीस
कभी नहीं देखा गया
किसी शराबी को
भूख से मरते हुए।
चालीस
यात्राएँ टालता रहता है शराबी
पता नही वहाँ पर
कैसी शराब मिले
कैसे शराबी!
इकतालीस
धर्म अगर अफ़ीम है
तो विधर्म है शराब।
बयालीस
समरसता कहाँ होगी
शराबघर के अलावा?
शराबी के अलावा
कौन होगा सच्चा धर्मनिरपेक्ष!
तैंतालीस
शराब ने मिटा दिए
राजशाही, रजवाड़े और सामंत
शराब चाहती है दुनिया में
सच्चा लोकतंत्र।
चवालीस
कुछ जी रहे हैं पीकर
कुछ बग़ैर पिए।
कुछ मर गए पीकर
कुछ बग़ैर पिए।
पैंतालीस
नहीं पीने में जो मज़ा है
वह पीने में नहीं
यह जाना हमने पीकर।
छियालीस
इंतज़ार में ही
पी गए चार प्याले
तुम आ जाते
तो क्या होता?
सैंतालीस
तुम नहीं आए
मैं डूब रहा हूँ शराब में
तुम आ गए तो
शराब में रोशनी आ गई।
अड़तालीस
तुम कहाँ हो
मैं शराब पीता हूँ
तुम आ जाओ
मैं शराब पीता हूँ।
उनचास
तुम्हारे आने पर
मुझे बताया गया प्रेमी
तुम्हारे जाने के बाद
मुझे शराबी कहा गया।
पचास
देवताओ,
जाओ
मुझे शराब पीने दो
अप्सराओ,
जाओ
मुझे करने दो प्रेम।
इक्यावन
प्रेम की तरह शराब पीने का
नहीं होता कोई समय
यह समयातीत है।
बावन
शराब सेतु है
मनुष्य और कविता के बीच।
सेतु है शराब
श्रमिक और कुदाल के बीच।
तिरपन
सोचता है जुलाहा
काश!
करघे पर बुनी जा सकती शराब।
चौवन
कुम्हार सोचता है
काश!
चाक पर रची जा सकती शराब।
पचपन
सोचता है बढ़ई
काश!
आरी से चीरी जा सकती शराब।
छप्पन
स्वप्न है शराब!
जहालत के विरुद्ध
ग़रीबी के विरुद्ध
शोषण के विरुद्ध
अन्याय के विरुद्ध
मुक्ति का स्वप्न है शराब!
क्षेपक
पांडुलिपि की हस्तलिपि भले उलझन भरी हो, लेकिन उसे कलात्मक कहा जा सकता है। इसे स्याही झरने वाली क़लम से जतन से लिखा गया था। अक्षरों की लचक, मात्राओं की फुनगियों और बिंदु, अर्धविराम से जान पड़ता है कि यह हस्तलिपि स्वअर्जित है। पूर्णविराम का स्थापत्य तो बेजोड़ है—कहीं कोई भूल नहीं। सीधा सपाट, रीढ़ की तरह तना हुआ पूर्णविराम। अर्धविराम ऐसा, जैसा थोड़ा फुदक कर आगे बढ़ा जा सके।
रचयिता का नाम कहीं नहीं पाया गया। डेगाना नामक क़स्बे का ज़िक्र दो-तीन स्थलों पर आता है जिसके आगे ज़िला नागौर, राजस्थान लिखा गया है। संभवतः वह यहाँ का रहने वाला हो। डेगाना स्थित 'विश्वकर्मा आरा मशीन' का ज़िक्र एक स्थल पर आता है—जिसके बाद खेजड़े और शीशम की लकड़ियों के भाव लिखे हुए हैं। बढ़ईगीरी के काम आने वाले राछों (औज़ारों) यथा आरी, बसूला, हथौड़ी आदि का उल्लेख भी एक जगह पर है। हो सकता है वह ख़ुद बढ़ई हो या इस धंधे से जुड़ा कोई कारीगर। पांडुलिपि के बीच में 'महालक्ष्मी प्रिंटिंग प्रेस, डीडवाना' की एक परची भी फँसी हुई थी, जिस पर कंपोज़िंग, छपाई और बाइंडिंग का 4375 (कुल चार हज़ार तीन सौ पचहत्तर) रुपए का हिसाब लिखा हुआ है। यह संभवतः इस पांडुलिपि के छपने का अनुमानित व्यय था—जिससे जान पड़ता है कि इस 'कितबिया' को प्रकाशित कराने की इच्छा इसके रचयिता की रही होगी।
रचयिता की औपचारिक शिक्षा-दीक्षा का अनुमान पांडुलिपि से लगाना मुश्किल है—यह तो लगभग पक्का है कि वह बी.ए., एम.ए. डिग्रीधारी नहीं था। यह ज़रूर हैरान करने वाली बात है कि पांडुलिपि में अमीर ख़ुसरो, कबीर, मीर, सूर, तुलसी, ग़ालिब, मीरा, निराला, प्रेमचंद, शरतचंद्र, मंटो, फ़िराक़, फ़ैज़, मुक्तिबोध, भुवनेश्वर, मजाज़, उग्र, नागार्जुन, बच्चन, नासिर, राजकमल, शैलेंद्र, ऋत्विक घटक, रामकिंकर, सिद्धेश्वरी देवी की पंक्तियाँ बीच-बीच में गुँथी हुई हैं। यह वाक़ई विलक्षण और हैरान करने वाली बात है। काल के थपेड़ों से जूझती हुई, होड़ लेती हुई कुछ पंक्तियाँ किस तरह रेगिस्तान के एक 'कामगार' की अंतरात्मा पर बरसती हैं और वहीं बस जाती हैं, जैसे नदियाँ हमारे पड़ोस में बसती हैं।
— कृष्ण कल्पित
पटना, 13 फ़रवरी 2005
वसंत पंचमी
सत्तावन
कहीं भी पी जा सकती है शराब
खेतों में खलिहानों मे
कछार में या उपांत में
छत पर या सीढ़ियों के झुटपुटे में
रेल के डिब्बे में
या फिर किसी लैंप पोस्ट की
झरती हुई रोशनी में
कहीं भी पी जा सकती है शराब।
अट्ठावन
कलवारी में पीने के बाद
मृत्यु और जीवन से परे
वह अविस्मरणीय नृत्य
'ठगिनी क्यों नैना झमकावै'।
कफ़न बेचकर अगर
घीसू और माधो नहीं पीते शराब
तो यह मनुष्यता वंचित रह जाती
एक कालजयी कृति से।
उनसठ
देवदास कैसे बनता देवदास
अगर शराब न होती।
तब पारो का क्या होता
क्या होता चंद्रमुखी का
क्या होता
रेलगाड़ी की तरह
थरथराती आत्मा का?
साठ
उन नीमबाज़ आँखों में
सारी मस्ती
किस की-सी होती
अगर शराब न होती!
आँखों में दम
किसके लिए होता
अगर न होता साग़र-ओ-मीना?
इकसठ
अगर न होती शराब
वाइज़ का क्या होता
क्या होता शेख़ साहब का
किस काम लगते धर्मोपदेशक?
बासठ
पीने दे पीने दे
मस्जिद में बैठ कर
कलवारियाँ
और नालियाँ तो
ख़ुदाओं से अटी पडी हैं।
तिरसठ
'न उनसे मिले न मय पी है'
'ऐसे भी दिन आएँगे'
काल पड़ेगा मुल्क में
किसान करेंगे आत्महत्याएँ
और खेत सूख जाएँगे।
चौंसठ
'घन घमंड़ नभ गरजत घोरा
प्रियाहीन मन डरपत मोरा'
ऐसी भयानक रात
पीता हूँ शराब
पीता हूँ शराब!
पैंसठ
'हमन को होशियारी क्या
हमन हैं इश्क़ मस्ताना'
डगमगाता है शराबी
डगमगाती है कायनात!
छियासठ
'अपनी-सी कर दीनी रे
तो से नैना मिलाय के'
तोसे तोसे तोसे
नैना मिलाय के
'चल ख़ुसरो घर आपने
रैन भई चहुँ देस'
सड़सठ
'गोरी सोई सेज पर
मुख पर डारे केस'
'उदासी बाल खोले सो रही है'
अब बारह का बजर पड़ा है
मेरा दिल तो काँप उठा है।
जैसे-तैसे मैं ज़िंदा हूँ
सच बतलाना तू कैसा है।
सबने लिखे माफ़ीनामे।
हमने तेरा नाम लिखा है।
अड़सठ
'वो हाथ सो गए हैं
सिरहाने धरे-धरे'
अरे उठ अरे चल
शराबी थामता है दूसरे शराबी को।
उनहत्तर
'आए थे हँसते-खेलते'
'यह अंतिम बेहोशी
अंतिम साक़ी
अंतिम प्याला है'
मार्च के फुटपाथों पर
पत्ते फड़फड़ा रहे हैं
पेडों से झड़ रही है
एक स्त्री के सुबकने की आवाज़।
सत्तर
'दो अंखियाँ मत खाइयो
पिया मिलन की आस'
आस उजड़ती नहीं है
उजड़ती नहीं है आस
बड़बड़ाता है शराबी।
इकहत्तर
कितना पानी बह गया
नदियों में
ख़ून की नदियों में
'तो फिर लहू क्या है?'
लहू में घुलती है शराब
जैसे शराब घुलती है शराब में।
बहत्तर
'धिक् जीवन
सहता ही आया विरोध'
'कन्ये मैं पिता निरर्थक था'
तरल गरल बाबा ने कहा
'कई दिनों तक चूल्हा रोया
चक्की रही उदास'
शराबी को याद आई कविता
कई दिनों के बाद!
तिहत्तर
राजकमल बढ़ाते हैं चिलम
उग्र थाम लेते हैं।
मणिकर्णिका घाट पर
रात के तीसरे पहर
भुवनेश्वर गुफ़्तगू करते हैं मजाज़ से।
मुक्तिबोध सुलगाते हैं बीड़ी
एक शराबी
माँगता है उनसे माचिस।
'डासत ही गई बीत निशा सब।'
चौहत्तर
'मोसे छल
किए जाए हाय रे हाय
हाय रे हाय'
'चलो सुहाना भरम तो टूटा'
अबे चल
लकड़ी के बुरादे
घर चल!
सड़क का हुस्न है शराबी!
पचहत्तर
'सब आदमी बराबर हैं'
यह बात कही होगी
किसी सस्ते शराबघर में
एक बदसूरत शराबी ने
किसी सुंदर शराबी को देखकर।
यह कार्ल मार्क्स के जन्म के
बहुत पहले की बात होगी!
छिहत्तर
मगध में होगी
विचारों की कमी
शराबघर तो विचारों से
अटे पड़े हैं।
सतहत्तर
शराबघर ही होगी शायद
आलोचना की
जन्मभूमि!
पहला आलोचक कोई शराबी रहा होगा!
अठहत्तर
रूप और अंतर्वस्तु
शिल्प और कथ्य
प्याला और शराब
विलग होते ही
बिखर जाएगी कलाकृति!
उनासी
तुझे हम वली समझते
अगर न पीते शराब।
मनुष्य बने रहने के लिए ही
पी जाती है शराब!
अस्सी
'होगा किसी दीवार के
साये के तले मीर'
अभी नहीं गिरेगी यह दीवार
तुम उसकी ओट में जाकर
एक स्त्री को चूम सकते हो
शराबी दीवार को चूम रहा है
चाँदनी रात में भीगता हुआ।
इक्यासी
'घुटुरुन चलत
रेणु तनु मंडित'
रेत पर लोट रहा है
रेगिस्तान का शराबी
'रेत है रेत बिखर जाएगी'
किधर जाएगी
रात की यह आख़िरी बस?
बयासी
भाँग की बूटी
गाँजे की कली
खप्पर की शराब
कासी तीन लोक से न्यारी
और शराबी
तीन लोक का वासी!
तिरासी
लैंप पोस्ट से झरती है रोशनी
हारमोनियम से धूल
और शराबी से झरता है
अवसाद।
चौरासी
टेलीविजन के परदे पर
बाहुबलियों की ख़बरें सुनाती हैं
बाहुबलाएँ!
टकटकी लगाए देखता है शराबी
विडंबना का यह विलक्षण रूपक
भंते! एक प्याला और।
पिचासी
गंगा के किनारे
उल्टी पड़ी नाव पर लेटा शराबी
कौतुक से देखता है
महात्मा गांधी सेतु को
ऐसे भी लोग हैं दुनिया में
'जो नदी को स्पर्श किए बग़ैर
करते हैं नदियों को पार'
और उछाल कर सिक्का
नदियों को ख़रीदने की कोशिश करते हैं!
छियासी
तानाशाह डरता है
शराबियों से
तानाशाह डरता है
कवियों से
वह डरता है बच्चों से नदियों से
एक तिनका भी डराता है उसे
प्यालों की खनखनाहट भर से
काँप जाता है तानाशाह।
सत्तासी
क्या मैं ईश्वर से
बात कर सकता हूँ
शराबी मिलाता है नंबर
अँधेरे में टिमटिमाती है रोशनी
अभी आप क़तार में हैं
कृपया थोड़ी देर बाद डायल करें।
अट्ठासी
'एहि ठैयां मोतिया
हिरायल हो रामा...'
इसी जगह टपका था लहू
इसी जगह बरसेगी शराब
इसी जगह
सृष्टि का सर्वाधिक उत्तेजक ठुमका
सर्वाधिक मार्मिक कजरी
इसी जगह इसी जगह!
नवासी
'अंतरराष्ट्रीय सिर्फ़
हवाई जहाज़ होते हैं
कलाकार की जड़ें होती हैं'
और उन जड़ों को
सींचना पड़ता है शराब से!
नब्बे
जिस पेड़ के नीचे बैठकर
ऋत्विक घटक
कुरते की जेब से निकालते हैं अद्धा
वहीं बन जाता है अड्डा
वहीं हो जाता है
बोधिवृक्ष!
इक्यानवे
सबसे बड़ा अफ़सानानिग़ार
सबसे बड़ा शाइर
सबसे बड़ा चित्रकार
औरा सबसे बड़ा सिनेमाकार
अभी भी जुटते हैं
कभी-कभी
किसी उजड़े हुए शराबघर में!
बानवे
हमें भी लटका दिया जाएगा
किसी रोज़ फाँसी के तख़्ते पर
धकेल दिया जाएगा
सलाख़ों के पीछे
हमारी भी फ़ाक़ामस्ती
रंग लाएगी एक दिन!
तिरानवे*3
क़ब्रगाह में सोया है शराबी
सोचता हुआ
वह बड़ा शराबी है
या ख़ुदा!
चौरानवे
ऐसी ही होती है मृत्यु
जैसे उतरता है नशा
ऐसा ही होता है जीवन
जैसे चढ़ती है शराब।
पिचानवे
'हाँ, मैंने दिया है दिल
इस सारे क़िस्से में
ये चाँद भी है शामिल।'
आँखों में रहे सपना
मैं रात को आऊँगा
दरवाज़ा खुला रखना।
चाँदनी में चिनाब
होंठों पर माहिए
हाथों में शराब
और क्या चाहिए जनाब!
छियानवे
रिक्शों पर प्यार था
गाड़ियों में व्यभिचार
जितनी बड़ी गाड़ी थी
उतना बड़ा था व्यभिचार
रात में घर लौटता शराबी
खंडित करता है एक विखंडित वाक्य
वलय में खोजता हुआ लय।
सत्तानवे
घर टूट गया
रीत गया प्याला
धूसर गंगा के किनारे
प्रस्फुटित हुआ अग्नि का पुष्प
साँझ के अवसान में हुआ
देह का अवसान
धरती से कम हो गया एक शराबी!
अट्ठानवे
निपट भोर में
'किसी सूतक का वस्त्र पहने'
वह युवा शराबी
कल के दाह संस्कार की
राख कुरेद रहा है
क्या मिलेगा उसे
टूटा हुआ प्याला फेंका हुआ सिक्का
या पहले तोड़ की अजस्र धार!
आख़िर जुस्तजू क्या है?
आख़िर में
आख़िर में दो और सूक्तियाँ काग़ज़ पर लिखी हुई थीं, जिन्हें बाद में क़लम से क्रॉस कर दिया गया था, पर वे पढ़ने में आ रही थीं। अंतिम दो काटी हुई सूक्तियों के नीचे लिखा हुआ था—बाबा भर्तृहरि को प्रणाम!
इसका एक अर्थ शायद यह भी हो सकता है कि इन सूक्तियों का अज्ञात कवि अंतिम दो सूक्तियों को काटकर नीति, शृंगार और वैराग्य शतक के लिए संसार प्रसिद्ध और संस्कृत भाषा के कालजयी कवि भर्तृहरि को सम्मान देना चाहता हो! हो सकता है कि वह भर्तृहरि से दो सीढ़ी नीचे, उनके चरणों में बैठकर, अपने पूर्वज कवि की कृपा का आकांक्षी हो!
— कृष्ण कल्पित
निन्यानवे
रविवार की शराब
तो मशहूर है
शराब का कोई
रविवार नहीं होता।
सौ
शराब पीना
पर
प्रशंसा की शराब
कभी मत पीना।
शराबी की शाइरी
जैसा कि पूर्व कथन है—गोल करके धागे से बाँधी हुए एक पांडुलिपि काली स्याही से सुथरे अंदाज़ में लिखी गई थी। काग़ज़ के हाशिए और बची हुई ख़ाली जगहों पर कुछ आधी-अधूरी ग़ज़लें और कुछ शाइरीनुमा पंक्तियाँ भी लिखी हुई थीं, जिन्हें पढ़ते हुए कभी यह एहसास होता है कि ये किसी नौसीखिए की लिखी हुई हैं तो कभी यह भी लगता है जैसे यह किसी उस्ताद शाइर का काम हो। जो हो, अगर यह शाइरी इस पुस्तक में प्रकाशित न की जाती तो यह उस अज्ञात/खोए हुए अनाम कवि के साथ अन्याय होता!
— कृष्ण कल्पित
एक
जब मिलाओ शराब में पानी
याद रखियो कबीर की बानी
गिरह ग़ालिब की मीर के मानी
नाम मीरा थी प्रेम-दीवानी
ध्यान से भी बड़ी है बेध्यानी
सबसे बिदवान जो है अज्ञानी
भूलता जा रहा हूँ बातों में
चाहता था जो बात समझानी
साक़िया टुक इधर भी देख ज़रा
हर तरफ़ शोर है ज़रा पानी
दो
रात जाते हुए ही जाती है
एक मद्यप की याद आती है
ज़िंदगी गीत गुनगुनाती है
और चुपके से मौत आती है!
तीन
कभी दीवारो-दर को देखता हूँ
कभी बूढ़े शजर को देखता हूँ
नज़र से ही नज़र को देखता हूँ
फ़लक से फ़ितनागर को देखता हूँ
मेरा पेशा है मयनोशी
मेरा आलम है बेहोशी
शराबों के असर को देखता हूँ
तुम्हें भी रात भर को देखता हूँ।
चार
मोह छूटा तो ठग गई माया
लुट गया पास था जो सरमाया
अब तो जाता हूँ तेरी दुनिया से
‘फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया!’
पाँच
तेरा रस्ता बहुत तका हमने
तेरी गलियों में ख़ूब घूम लिया
जिस तरह चूमता तुम्हें जानम
आज दीवारो-दर को चूम लिया
रात को क्या हुआ शराबी ने
जिसको देखा उसी को चूम लिया!
छह
जिधर देखिए बस हवा ही हवा है
सुबह की हवा में कशिश है नशा है
जो गुज़रा उधर से तो देखा ये मंज़र
कि दारू के ठेके पे ताला जड़ा है।
सात
सुनके रस्ता भुला गए थे हम
तेरी बातों में आ गए थे हम
क्या-क्या बातें सुना गए थे हम
सारी महफ़िल पे छा गए थे हम
साक़िया ये पुराना क़िस्सा है
तेरी मटकी ढुला गए थे हम!
आठ
हश्र बरपा ही नहीं
अब्र बरसा ही नहीं
ज़िंदगी बीत गई
कोई क़िस्सा ही नहीं
जैसे इस दुनिया में
मेरा हिस्सा ही नहीं
साक़िया बात है क्या
हमको पूछा ही नहीं
रात को जाऊँ कहाँ
कोई डेरा ही नहीं!
नौ
दिल-ए-नाकाम आ जाऊँ
कहो तो शाम आ जाऊँ
यही हसरत बची है अब
किसी के काम आ जाऊँ!
दस
कभी बुतख़ाने में गुज़री
कभी मयख़ाने में गुज़री
बची थी ज़िंदगी थोड़ी
वो आने-जाने में गुज़री
समझना था नहीं हमको
समझ ही थी नहीं हमको
अगरचे शेख़ साहब की
हमें समझाने में गुज़री!
ग्यारह
विष बुझा तीर चला दे साक़ी
आज तो ज़हर पिला दे साक़ी
रोज़ का आना-जाना कौन करे
आख़िरी बार सुला दे साक़ी!
- पुस्तक : एक शराबी की सूक्तियाँ
- रचनाकार : कृष्ण कल्पित
- प्रकाशन : दख़ल प्रकाशन
- संस्करण : 2015
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