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पिता

pita

रति सक्सेना

और अधिकरति सक्सेना

    आख़िर बचता क्या है,

    उँगलियों के पोरों पर घिसे-से कुछ निशान,

    हथेलियों की उलट पर सैकड़ों झुर्रियाँ,

    या फिर कुछ कलहें, कुछ क़िस्से

    या फिर सब कुछ को एक रात अचानक छोड़

    बूढ़ा बच्चा बन जाना?

    बिल्कुल वैसे ही, जैसे कि

    पिता बन गए थे बच्चे, एक दिन अचानक

    एक ऐसे बच्चे जिसके सपने में परियाँ नहीं आतीं

    एक ऐसे बच्चे, जिसके पैरों में चकरी बैठी

    एक ऐसे बच्चे, जिसके हाथ माथे को तबले-सा बजाते

    पिता जो एक पहाड़ थे, जिसके नीचे हम

    बरसाती रातों में अभय पाते

    पिता जो एक दहाड़ थे, जो सोते में भी

    हमारी नसों को में खलबली मचा देती

    पिता जो एक दीवार थे, जो हर बाहरी तूफ़ान को

    भीतर आने से रोकते थे

    वे पिता अपनी देह में शरणार्थी बन

    एक हठीले बच्चे-से दिन-रात दौड़ने लगे

    अपनी जिया के लिए मचलने लगे

    कच्चे फलों में मुँह मारने लगे

    जितना एक बच्चे के बचपन को

    महसूस करना सुखद होता है

    उतना ही दुखद होता है

    पिता के पितृत्व का भड़भड़ाकर टूटना,

    और किरच-किरच बन बिखर जाना

    आख़िर बचता क्या है?

    आख़िरी पंक्ति का आख़िरी शब्द?

    निस्तब्धता से पहले आख़िरी हिचकी?

    या फिर बूढ़े होते पिता का

    अजीब-ओ-ग़रीब बचपना?

    स्रोत :
    • रचनाकार : रति सक्सेना
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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