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पिता की चीज़ें

pita ki chizen

विशाल श्रीवास्तव

विशाल श्रीवास्तव

पिता की चीज़ें

विशाल श्रीवास्तव

और अधिकविशाल श्रीवास्तव

    कितनी बार कहा उनसे

    बदल भी दीजिए यह बदरंग घड़ी

    और चश्मा कितना पुराना हो गया है

    ये पेन तो पता नहीं चलता भी है या नहीं

    फ़िलहाल सो रहे हैं पिता

    उनकी ख़ामोश चीज़ों पर जमी है धूल

    धूल को छूने के बहाने आहिस्ता से छूता हूँ चीज़ों को

    चुपचाप रहती हैं चीज़ें

    यही फ़र्क़ है चीज़ों और आदमियों को छूने में

    प्रतिवाद नहीं करती हैं चीज़ें

    उनका छूने के लिए नहीं देनी होती कोई कैफ़ियत

    उनको मनचाही तरह से टटोल सकते हैं आप

    इत्मीनान से महसूस कर सकते हैं

    उनकी त्वचा की नरमाई, गरमाई या ठंडक

    सगेपन का कितना ताप भरा हुआ उनके भीतर

    पिता को छूना तो मुश्किल हो गया है अब

    उँगलियों की पोरों में जम जाता है

    संकोच का कोई अदृश्य ज्वार

    जो उतरना नहीं जानता निःशब्द

    पिता का स्पर्श

    धमनियों के रक्त में भर देता था हरारत

    जहाँ बीतते समय के साथ जमने लगी है

    अबोलेपन की कोई उदास बर्फ़

    सीली हुई दुनिया के इन फीके दिनों में

    हम नहीं देख पाते एक दूसरे को सोच में डूबा

    ध्यान बँटाने के लिए हम कभी-कभी

    आपस में मामूली परेशानियों पर बात करते हैं

    और इस तरह पूरी पाबंदगी से रहते हैं

    एक-दूसरे के साथ

    बुख़ार में भी छूते डरते हैं दूसरे का माथा

    संजीदा समझ के साथ-साथ हमारे बीच

    शैवाल की तरह बसती है एक झिझक

    फिर भी लगभग पिता को छूने जैसा ही है

    इन चीज़ों को छूना

    ठीक वैसी ही ऊष्मा से भरा है इनका स्पर्श

    बहुत आसान है इनको छूना

    छूने पर ये घबराती नहीं आशंका से भरकर

    मन नहीं है पिता-सा इनके पास

    स्रोत :
    • पुस्तक : पीली रोशनी से भरा काग़ज़ (पृष्ठ 41)
    • रचनाकार : विशाल श्रीवास्तव
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2016

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