पिता मुझसे उतने बड़े हैं
जितना गाँव बड़ा होता है शहर से
एक नहर बड़ी होती है किसी नदी से
जो खेतों तक उतना ही पहुँचती है
जितनी खेतों को उसकी ज़रूरत है
वे इतने बड़े हैं कि मेरी सभ्यता के
शर्तिया साँचों में अँट नहीं पाते
रह जाते हैं बाहर
एक आदिम उदार हँसी के साथ
वही हँसी जो मेरे बाबा की
हार चढ़ी फ़ोटो पर
एक क्षणिक याद की तरह अटकी है
बाबा तस्वीरों में कभी नहीं हँसते थे
पिता भी नहीं हँसते हैं
चाचा इस न हँसने वाली सभ्यता के नहीं थे
शायद इसलिए उनकी कोई हार चढ़ी तस्वीर नहीं है हमारे पास
इस पंक्ति को लिखते समय
मुझे अचानक अहसास हुआ
कि बाबा और चाचा के 'थे' के बीच
पिता बचे रह गए हैं इस 'है' के साथ
कि इस एकल 'है' की क़ीमत
उनको चुकानी है उम्र भर
पिता मुझसे उतने ही भावुक हैं
जितने भावुक होते हैं
पतझड़ के आने पर दरख़्त
उनको गुलाब देखकर अम्मा याद नहीं आतीं
आती भी होगी तो कह सकने की भाषा
उनकी सभ्यता ने उनको नहीं दी
पिता पतझड़ के दरख़्त हैं
उनके पास फूलों की भाषा नहीं है
लेकिन एक आवाज़ है
जिस आवाज़ में वह चाचा की याद की सिसकियाँ दबा लेते हैं
अम्मा किसी डाकिए की तरह अगली सुबह बताती हैं
कि क्यों आज पिता काम पर नहीं जाना चाहते थे
फिर भी गए!
जिस आवाज़ में बाबा और चाचा की
याद के लिए भाषा नहीं है
उसी आवाज़ में आज पिता ने मुझसे कुछ कहा
मेरी सभ्यता में उस आवाज़ की ध्वनि
मेरी पीठ पर पड़ती चाचा की थपकी थी
हमारी बेटी! तुम हमारा अभिमान हो
सिर्फ़ इतना कहने के लिए
पिता कुछ नहीं बोले
बस अपनी आवाज़ में गुनगुने पानी जितनी
गर्मी ले आए और मैं समझ गई
आज मेरे पिता अपनी सत्ता की पहचान भूल चुके हैं
अबकी बार वसंत आने पर
हम चाचा की याद में मिलकर गाएँगे
अपने गाँव का कोई लोकगीत
- रचनाकार : संध्या चौरसिया
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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