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पिता

pita

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

     

    (1)

    एहौ जगतपिता के प्रतिनिधि पिता पियारे!
    मोहि जन्म दै जगत दृश्य दरसावन हारे!
    तव पद पंकज मैं करौं हौं बारहिं बार प्रनाम,
    निज पवित्र गुनगान की मोहि दीजै बुद्धि ललाम॥

    (2)

    यद्यपि यह सिर मेरो नहिं परसाद तिहारो।
    प्रेम-नेम तैं तदपि चहौं तव चरननि धारो।
    गंगा जू कों अर्घ्य सब, हैं गंगहि जल सों देत,
    ऐसो बालचरित्र मम लखि रीझौ मया समेत॥

    (3)

    बंदौं निहछल नेह रावरे उर पुर केरो,
    लालन पालन भयो सबैं विधि जासों मेरो।
    उलटै-पुलटै काम मम अरु टेढ़ी-मेढ़ी चाल।
    निपट अटपटे ढंगहू नित लखि-लखि रहे निहाल॥

    (4)

    कहौं कहौं लग अहौ आपनी निपट ढिठाई!
    तव पवित्र तन माहिं बार बहु लार बहाई।
    सुद्ध स्वच्छ कपड़ान पर बहु बार कियो मल मूत।
    तबहुँ कबहुँ रिस नहिं करी मोहि जान पियारो पूत॥

    (5)

    लाखन अवगुन किए तदपि मन रोष न आन्यो।
    हँसि-हँसि दिए बिसारि अज्ञ बालक मोहि जान्यो।
    कोटि कष्ट सुख सों सहे जिहि बस अनगिनतिन हानि।
    कस न करौं तिहि प्रेम को नित प्रनति जोरि जुगपानि॥

    (6)

    बंदौं तव मुखकमल मोहिं लखि नित्य विकासित।
    मो संग विद्या आछतहूँ तुतराई भासित।
    लाल वत्स प्रिय पूत सुत नित लै लै मेरे नाम।
    सुधा सरिस रस बैन सों जो पूरित आठौं जाम॥

    (7)

    खेलत-खेलत कबहु धाय तव गरै लपटतो।
    लरिकाई चंचलताई कै खरो चमटतो।
    लटकि-लटकि कै आपहीं हौं सम्मुख जातो घूमि।
    बंदौं सो श्रीमुख कमल जो लेतो मो मुख चूमि॥

    (8)

    जब तब जो कछु बाल बुद्धि मेरी में आयो।
    अनुचित उचित न जानि आय कै तुमहिं सुनायो।
    हँसि-हँसि ताहू पै दिए उचित ज्वाब मोहि जान।
    बंदौं अति श्रद्धा सहित सो मधुर-मधुर मुसकान॥

    (9)

    बंदौं तुम्हरे तरुन अरुन पंकज दल  लोचन।
    दया दृष्टि सों हेरि सहज सब सोच विमोचन।
    मेरे औगुन पै कबहुँ जिन करि न तनिक निगाह।
    सबहि दसा सब ठौर में नित बकस्यो अमित उछाह।

    (10)

    मोहिं मुरझान्यो देखि तुरत जलसों भरि आए।
    कहूँ रुष्टहू भए तहूँ ममता सों छाए।
    तरजन बरजन करतहूँ हो पूरित पावन प्रेम।
    सब दिन जो तकते हुते बहु ममता सों मम छेम॥

    (11)

    खेलन हेत कबहु जब निज मीतन संग जातो।
    जब फिरकै आतो मारग तकते ही पातो।
    आवत मोहिं निहारिकै हो हरे भरे ह्वै जात।
    युगल नैन बंदौ सोई मैं नित प्रति साँझ प्रभात॥

    (12)

    जिन नैनन के त्रास रह्यो मेरे मन खटको।
    पै वह खटको रह्यौ पंथ सुख सागर तटको।
    अगनित दुरगुन दुखन ते जिन राख्यो रक्षित मोहिं!
    काहे न वे दृग कमल मम श्रद्धा-सर-सोभा होहिं?

    (13)

    करौं बंदना हाथ जोरि तव कर कमलन की।
    सब बिधि जिनसो पुष्टि तुष्टि भई या तन मन की।
    दूध भात की कौरियाँ सुचि रुचि से सदा खवाय।
    इतने ते इतनो कियो जिन मोहें मया सरसाय॥

    (14)

    बड़े चावसों केस सँवारत पट पहिरावत।
    जूठे कर मुख धोवत नित निज संग अन्हवावत।
    कहूँ सिसुता बस याहब मैं जब रोय उठों अनखाय।
    तब रिझवत हंसि गोद लै कै देत खिलौना लाय॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 651)
    • संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
    • संस्करण : 1950

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