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पिछोला झील

pichhola jheel

हर्षदेव माधव

हर्षदेव माधव

पिछोला झील

हर्षदेव माधव

और अधिकहर्षदेव माधव

    काश-कुसुम वर्णी आकाश,

    झील का शांत किनारा।

    पिछोला झील में तिरती हैं मछलियाँ-

    जैसे विहार कर रही हैं अप्सराएँ

    आकाशीय बादलों के प्रतिबिंबों में।

    उदयपुर-राणा के महल का

    प्रतिबिंब

    पानी के काँच में।

    नहीं सुनाई देती नर्तकी की चीत्कार।

    उसकी चीत्कार

    पानी के बुद्बुदों में समा गई।

    उसका चापल्य

    छुपा दिया झील के पानी ने।

    मगरमच्छ की दाढ़ों के बीच

    प्रतीत होता है

    प्रतिध्वनि-शून्य

    काश-कुसुम वर्णी आकाश।

    वह नर्तकी,

    जिसके रुधिर की लालिमा नहीं है

    हल्दीघाटी की पीली माटी में,

    नहीं है प्रतिबिंब

    पद्मिनी-महल के दर्पण में,

    उसकी ओढ़नी नहीं उड़ती है

    हवामहल की खिड़कियों में,

    जिसके पैरों की आहट नहीं है

    सूर्यवंश के महलों में

    अथवा चित्रशाला के काँच-चित्रों में।

    झील के किनारे एक कक्ष में

    उसकी समाधि स्थित है

    रानी के षड्यंत्र की स्मृति होकर...।

    मैं अनुभव करता हूँ नर्तकी का नाच

    जलतरंगों में,

    उसका रूप

    साँझ के रंग में...

    उसका शरीर-चांचल्य

    मछलियों में।

    पानी पर

    मगरमच्छ की तरह दाढ़ें फैलाकर

    अस्त होने जा रहा है सूरज,

    पिछोला झील

    उछाल भरती है

    मेरे मन में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : तेरे स्पर्श-स्पर्श में (पृष्ठ 32)
    • रचनाकार : हर्षदेव माधव
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2016

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