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फूल जितना खिलता है

phool jitna khilta hai

ममता बारहठ

ममता बारहठ

फूल जितना खिलता है

ममता बारहठ

और अधिकममता बारहठ

    कुरेदते हुए दीवार का रंग

    एक चित्र

    दुःख की सूरत में

    उठता है नाख़ून पर मेरे

    काँपते हुए होंठों से शब्द

    भाप बनकर उड़ते जाते हैं

    और रात एक भरा बादल

    अँधेरे में बरसता है

    चुपचाप

    सिरहाने मेरे

    एक लकीर है चेहरे पर खिंची

    जिस पर कभी उदासी

    तो कभी मुस्कान उभर आती है

    याद अपने पास जाने किसे ला बैठाए

    कौन जानता है

    जाने कब पलटने को होऊँ

    और कोई मेरा लौटता हाथ थाम ले

    कब कोई अजनबी पुकार

    किसी अपने सी लग जाए

    और कोई अनजान

    भीतर मेरे उस अजनबी पुकार पर

    भूल से पलट जाए

    एक फूल मुरझाने से पहले कई दफ़ा

    अपने भीतर सिकुड़ता है

    कई दफ़ा भूलकर अपना आप

    लटके रहता है डाल पर

    भारी-सा

    फूल जितना खिलता है

    उससे कई अधिक मर जाता है

    जब भी देखती हूँ

    हथेलियों को मुट्ठियाँ खोलकर

    तो पीली पत्तियाँ झूलने लगती हैं भीतर

    जो देखते ही

    मुरझाकर गिर पड़ती हैं

    एक पेड़ मुझमें तब तक जीवित है

    जब तक मेरी दृष्टि से दूर है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : ममता बारहठ
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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