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मनः स्थिति

man sthiti

रवि प्रकाश

रवि प्रकाश

मनः स्थिति

रवि प्रकाश

और अधिकरवि प्रकाश

     

    एक

    जो आदमी अभी यहाँ आया है
    वह अकेला नहीं है
    वेश्याएँ रिक्शे पर चली आ रही हैं
    चालक पसीने से भीगकर
    हाँफ रहा है,
    ऊँचाई पर वेश्याओं के साथ चढ़ना आसान नहीं होता
    पूरा शरीर दुर्गंध और पसीने से लिथड़ा हुआ है
    काइयाँ जम गई हैं
    फफूँदियों के चकत्ते जंगलों में उग आए हैं
    जिन पर झींगुर टहल रहे हैं
    मैं रेउवें1 की तरह, सीलन की पर्त तोड़ते हुए
    दुनिया के कई हिस्सों में दाख़िल हो रहा हूँ
    पूरी दुनिया सील रही है
    सीलन की गंध, पान, पपड़ियाँ, चूने
    पायल, आलता, लिपस्टिक
    सब नाबदान में बजबजाते
    इस लैम्प-पोस्ट के नीचे से बहे जा रहे हैं
    पीली रोशनी में डिबिया सिंदूर की
    इस रोशनी को बीमार कर देती है
    सदियों से दीवारों पर लटकी, शीशों में क़ैद
    बीमार देवियाँ
    सीलन में फूलकर फफूँद से भर गईं हैं
    अस्त्र, रक्त, जीभ, छाती पर सवार देवी
    वर, वीणा, वाणी, विद्या की गुनहगार देवी।


    दो

    सरहद भाप और रेत की बनी हुई है
    जिस पर सिर्फ़ लोहे के सहारे ही बढ़ा जा सकता है
    गति सिर्फ़ इतनी है
    कि बल पर खुरदुरे पैरों का दबाव बना हुआ है
    जिस पर सवार वेश्याएँ शहर की सैर कर आती हैं
    और अपने नखरे से
    शहर की जकड़न को थोड़ा ढीला कर आती हैं
    जहाँ सड़कें और शरीर
    पान की ख़ुशबू में डूब जाते हैं।

    सफ़ेदपोशों के भवन, मेहराबें
    जैसे सांस्कृतिक घरानों के डूबते सूरज
    चूना और चापड़ कब तक आग में उजला रहेगा
    हाँफता हुआ मनुष्य दरअसल
    विटामिन की गोलियाँ
    अपने साथ रखता है
    और अँधेरे में हकीमों से मिल आता है।

    तीन

    बिस्तर में पड़ा आदमी
    धीरे-धीरे दम घोंट रहा है
    छत के नीचे एक सुनसान ख़ाली घर
    जैसे इस सदी में इलेक्ट्रॉनिक मर्चुरी में तब्दील हो गया
    झटकों से चेहरा काला पड़ गया
    पूरा कमरा
    शवों के धुएँ से भरा रहता है
    हड्डियाँ चटकती रहती हैं
    मांस सूखता रहता है
    मस्तिष्क सुलगता रहता है
    हज़ार पाँवों से दौड़ते कनखजूरे दहशत में दौड़ रहे हैं
    कंदराएँ, गुफाएँ, सीलन भरी कोठरियाँ
    फफूँद जमी पसलियाँ
    छत के नीचे टँगी हुई देवियाँ
    मैं कहीं और भागने लगता हूँ
    किताबों से सड़ते हुए गुलाबों की, उथली भावनाओं की
    बास आती रहती है।

    भव्य ललाट, विवेकी मष्तिष्क के नीचे
    एक सुनसान ख़ाली तालाब
    विषहीन साँपों से भरा
    गहरे विशालकाय बाँसों का अँधेरा
    काइयाँ जमी पसलियाँ
    मरी हुई मछलियाँ
    सब अतृप्त, अधूरी कहानियाँ
    बँसवारी में डायनें रक्त चूस रही हैं
    आदमी मांस नोच रहा है
    मेरी तलाश, बुझ चुके आदमी की राख में :
    अस्थियाँ, चिंगारियाँ...

    चार 

    ये धरती
    ये धरती
    ये धरती
    मृत्यु शिलाओं से टकरा रही है
    अरराकर टूट रहे हैं पहाड़
    हहराकर नदी रेत में धँसती जा रही है
    बवंडर की तरह उठ रही है रेत
    लगता है
    गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध हो रही है बारिश
    उधर हिमालय पर
    धरती रूखी-सूखी है
    उसके होंठों पर पपड़ियाँ जम गई हैं
    पछुआ हवाएँ
    धरती पर पड़ी दरारों को फैला रही हैं
    कुछ नए झरने फूटेंगे, कुछ नए मुहाने निकलेंगे
    जीवन आख़िर जीवन है, हम प्यास बुझाने निकलेंगे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रवि प्रकाश
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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