एक
कितने ही डर थे
जिनसे गुज़रना था उसे
अपनी ही जड़ें
मिट्टी होने का एहसास—
सिर्फ़ एक था
अपने ही तनों को न छू पाना भयावह
पर बढ़ने और दफ़्न होने के सिवा
ज़िंदगी थी क्या?
दो
उस दिन कोई मुसाफ़िर
आ बैठा पेड़ की छाँव तले
रोटियाँ खाईं
थोड़ी पेड़ की जड़ों में
घर बनाती चींटियों को खिलाईं
सो गया फिर
चीटियाँ घर बनाती रहीं
पेड़ ने अपनी रसोई समेटी
और पंखा झलता रहा
तीन
अबकी बारिश ज़रा देर से आई
मटके सूखे रहे
कहानियों वाला कौवा भी नहीं दिखा
पेड़ ने आकाश का सीना सहलाया
बादल एक दूसरे को
कुहनियाते, हँसी-ठट्ठा करते आए
चार
दो पंछी लड़ बैठे उसकी छाँव में
थोड़ी देर बाद उड़ गए
पेड़ ने फिर से स्मृतियाँ सहेज लीं
पेड़ के सपनों में सूखा नहीं आता
पाँच
रात के गहरे काले समय के सपने में
मैंने पेड़ को पुकारा
अपनी फुनगियों में लिपटी
रंग-बिरंगी पतंगों के साथ
जड़ें समेटे
वह दौड़ा चला आया
छह
पेड़ भी सोते हैं कभी
अपनी ही टहनियों से
आँखें ढँक कर
अपनी जड़ें समेटकर
अंजान बन जाते हैं
नहीं पहचानते उस इंसान को
जो छाँव तले बैठा
बीड़ी फूँकता है
जिसने बाँध रखी है कुल्हाड़ी
कमर के गमछे से
जो हाथों का छज्जा बनाकर
पेड़ की उँचाई मापता है!
- रचनाकार : रंजना मिश्र
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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