पत्थर नहीं हृदय में कोमलता का वास होता है
patthar nahin hirdai mein komalta ka was hota hai
वीरभद्र कार्कीढोली
Virbhadra Karkidholi
पत्थर नहीं हृदय में कोमलता का वास होता है
patthar nahin hirdai mein komalta ka was hota hai
Virbhadra Karkidholi
वीरभद्र कार्कीढोली
और अधिकवीरभद्र कार्कीढोली
जिस हिमालय को देखकर तुम पिघल रहे हो
मैं उसी हिमालय को देखकर उठता जा रहा हूँ।
जिस पहाड़ से तुम डर रहे हो
उसी पहाड़ पर
मैं पग टिका-टिकाकर चढ़ रहा हूँ।
जिस भू-स्खलन को देखकर
तुम स्वयं स्खलित हो रहे हो,
मैं उसी स्खलन को रोकने अड़ा हूँ।
जिस ज़िंदगी से
तुम हतोत्साहित हो रहे हो
आजकल मैं—
उसी ज़िंदगी पर रम रहा हूँ।
जिस बोझ को तुम परे हटा रहे हो
मैं उसी बोझ को ढो रहा हूँ।
जिस चेहरे को
तुम घृणा से थूककर
चेहरा ही नहीं—कहते हो
मैं उसी चेहरे को धोकर
सही चेहरा मान रहा हूँ।
जिस अश्कों को
तुम सिर्फ़ पानी कहते हो,
मैं उन्हीं अश्कों को अमृत मानता हूँ।
न जाने कैसा लगता है तुम्हें :
जिस फूल को तुम अपने हाथों से तोड़ते हो
उसी फूल को मैं
अपने हाथों से सजा-सँवार रहा हूँ।
जिस घटा को तुम
कहते हो अब छँटेगी
मैं उसी घटा को देखकर
कहता हूँ—अब बरसेगी।
पीड़ा समान नहीं है सबमें / पर
जिस पीड़ा के दर्द से तुम कराह रहे हो
आजकल मैं
उसी पीड़ा को मौन होकर सह रहा हूँ।
कभी कभार
तुम्हें कैसा लगता होगा, पता नहीं...
मुझे तो ज़िंदगी को पढ़ने का मन होता है।
मुझे तो ज़िंदगी को उपभोग करने का
मन होता है।
न जाने—कैसा लगता है तुम्हें
आजकल
मुझे ज़िंदगी को
विविध आयामों से देखने का मन होता है।
ओह! मेरे वर्तमान जीवन से
तुम दुखी तो नहीं हो न?
मुझे ज़िंदगी का बोझ
इसी तरह ढोकर
यहाँ के ऊँचे-नीचे
सँकरे-कठिन
अनुभव और अनुभूतियों की राहों पर
चलना अच्छा लगता है।
पहले की बातें मन में अँट न सकें मेरे
जिसे तुम हार मानते थे जीवन में
सोचो तो, मैं उसे ही
जीत मानता था जीवन की।
पर नहीं थूकना था,
इसी चेहरे पर घृणा से!
मैं उसी चेहरे को कैसे पखारता रहा,
पसीने से।
तुम भूले हो या नहीं अब तक
जिस हृदय में सदा तुम
कहते थे—पत्थर का वास होता है।
उसी हृदय में मैं
कहता था—कोमलता का वास होता है।
- पुस्तक : इस शहर में तुम्हें याद कर (पृष्ठ 33)
- रचनाकार : वीरभद्र कार्कीढोली
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2016
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