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पथिक-गीत

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जी. शंकर कुरुप

जी. शंकर कुरुप

पथिक-गीत

जी. शंकर कुरुप

और अधिकजी. शंकर कुरुप

    ऊपर चमकने वाले तारे!

    बताओ

    क्या दूर कहीं प्रभात दिखाई देता है?

    तुम्हारा प्यारा-प्यारा मुखमंडल

    किस अतिशय आनंदातिरेक से प्रफुल्ल हो रहा है?

    हे पुलकप्रद!

    मेरे ये जागे हुए प्राण

    तेरे साथ आंदोलित हो रहे हैं।

    प्यारे!

    तेरे तरल नयनों में

    यह स्मित रेखा की झलक है

    या चमकते हुए आँसू की?

    धरती की धूल और स्वेद से दूर

    ऊपर रहने वाले!

    तुम नहीं जान सकते

    उस मन की प्यास को—

    जो अंधकार से अंधकार की ओर

    मरु-प्रदेश से मरु-प्रदेश की ओर

    युगों से भटक रहा है।

    मेरा यह ऊँट, पुराने काल की

    स्मृतियों से खचित उन राहों पर शिथिल श्रांत

    चल रहा है, जहाँ

    शोक-गाथाओं का आलाप होता रहता है।

    जहाँ आगे और पीछे

    दाएँ और बाएँ

    रुदन-रौरव के अतिरिक्त

    कुछ सुनाई नहीं देता।

    इने-गिने लोगों की तृष्णा बुझाने के लिए

    बहुतों की आँखों में खुदाई की जा रही है;

    किंतु उनसे बहते पानी के

    खारीपन से

    उन्हीं का कंठ सूखता जा रहा है—

    उनके हृदय-पिण्ड में,

    आर्द्रता की नन्हीं कणिका तक दिखाई नहीं देती!

    शीतल सुरभित भव्य पवन की प्रतीक्षा करने वाले

    हम

    आज व्याकुल हो छटपटा रहे हैं!

    आज केवल वध-स्थलों के

    रक्त की दुर्गंधि से भरी हवा चल रही है।

    दूर और पास

    कहीं भी एक ऐसा मित्र दिखाई नहीं देता

    जिसने मुखौटा पहन रखा हो।

    सब ओर,

    निपुण तस्कर घातकों की परछाइयाँ

    हिल रही हैं।

    किंतु,

    मेरा यह ऊँट इसी रास्ते से होकर

    जीवन का गुरुभार वहन कर भटक रहा है!—

    कलह से दूर

    आकाश की विशालता में

    संहारक गर्जन को अनसुनी किए

    वध-स्थली को अनदेखा किए

    अंधकार से अनाक्रांत हुए

    चित्त को अचंचल रखे

    यातना की दुर्गंध-भरी साँसों से बचकर

    स्वयं दास होकर

    किसी को दास बनाकर।

    हे मुग्धात्मन्!

    अनुज की अश्रुधारा बिना पान किए

    विश्व-सृष्टि के प्रारंभ से आज तक

    स्थिर-मन खड़े रहने वाले

    गगन का तम्बू खोलकर झाँको;

    बताओ, दूर कहीं प्रभात दिखाई देता है?

    निरुपम स्नेह की लघु-लहरियों से भरा

    सरोवर कहीं दृष्टिपथ में आता है?

    क्या मेरे इस थके ऊँट को विश्राम देने के लिए

    कोई शब्द-स्थली नहीं है?

    स्रोत :
    • पुस्तक : एक और नचिकेता (पृष्ठ 3)
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक जी. नारायण पिल्लै, लक्ष्मीचंद्र जैन
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1966

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