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पश्यंती

pashyanti

त्रिलोचन

त्रिलोचन

पश्यंती

त्रिलोचन

और अधिकत्रिलोचन

    करता हूँ आक्रमण धर्म के दृढ़ दुर्गों पर

    कवि हूँ, नया मनुष्य मुझे यदि अपनाएगा

    उन गानों में अपने विजय-गान पाएगा

    जिनको मैंने गाया है। वैसे मुर्गों पर

    निर्भर नहीं सवेरा होना, लेकिन इतना

    झूठ नहीं है, जहाँ कहीं वह बड़े सवेरे

    ऊँचे स्वर से बोला करता है, मुँह फेरे

    कोई पड़ा नहीं रह सकता, फिर भी कितना

    उसमें बल है। केवल निर्मल स्वर की धारा

    उसकी अपनी है, जिसकी अजस्र कल कल में

    स्वप्न डूब जाते हैं जीवन के लघु पल में—

    तम से लड़ता है इस पश्यंती के द्वारा।

    धर्म-विनिर्मित अंधकार से लड़ते-लड़ते

    आगामी मनुष्य, तुम तक मेरे स्वर बढ़ते।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 25)
    • रचनाकार : त्रिलोचन
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1985

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