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टोबा टेक सिंह की धरती पर

toba tek singh ki dharti par

सत्येंद्र कुमार

सत्येंद्र कुमार

टोबा टेक सिंह की धरती पर

सत्येंद्र कुमार

और अधिकसत्येंद्र कुमार

    तेज़ आँधियों और बारिश की तेज़ बौछारों में

    गौरेये की तरह भींगते हुए

    टोबा टेक सिंह की धरती पर

    हमने सीखा था करना प्यार।

    आँखों में समंदर का विश्वास लहराता

    नाविकों के गीत बरसते हमारे सपनों में।

    मैं कभी सावन का झूला बन जाता

    जिस पर वह झूलती और मेघों को छू आती,

    मेघ उसके बालों में फूलों की तरह उलझे होते,

    हम बेख़ौफ़ थे और सीमाओं की दुनिया से दूर।

    किसी देश की सीमा में नहीं पड़ती

    टोबा टेक सिंह की धरती।

    एक दिन जब चारों ओर जश्न था

    लोगों ने हमें टोबा टेक सिंह की धरती से बाहर

    झाँकते देख लिया।

    टोबा टेक सिंह की धरती का सपना

    तैरता दिखा उन्हें हमारी आँखों में।

    उनकी नज़रों में हमारा अपराध सिर्फ़ इतना था

    कि हमने लाहौर और अमृतसर से लौटती ट्रेनों के लोगों से

    टोबा टेक सिंह की धरती पर रुकने को कहा था।

    हमने बस एक ही सच दुहराया था—

    “साथियो, टोबा टेक सिंह की धरती पर रिफ़्यूज़ी कैंप नहीं होते।”

    इतनी-सी सच्चाई के लिए

    उन्होंने मुझसे मेरी आँखें और सकीना को छीनकर ले गए।

    खींचकर ले गए उसे अपनी सीमा में

    उसके अब्बू के साथ।

    सकीना को कहाँ मालूम था

    टोबा टेक सिंह की दुनिया का सच

    उनकी दुनिया का सच नहीं है।

    उसे तो उस जश्न में

    सिर्फ़ एक सच्चाई मिली

    जो उसके हर गीत पर भारी पड़ रही थी—

    ‘खोल दो’।

    उसके हाथ, जिसे मैंने हिना से सजाया था,

    बार-बार इज़ारबंद की ओर बढ़ते

    और सलवार नीचे सरक जाती।

    टोबा टेक सिंह की धरती से दूर

    देशों की आज़ादी का अर्थ

    बस इतना ही था सकीना के लिए

    और मेरे लिए सकीना की खुली सलवार

    सभ्य कहे जाननेवाले देश का शोकगीत।

    मैंने आज़ादी को

    सेनानायकों की नहीं,

    ‘रूपकौर’ और ‘सकीना’ की आँखों से देखा है।

    सच है, बहुत कुछ बदल गया है समय के साथ

    ‘सैंतालिस’ ने ‘ए. के.’ को जोड़ लिया है अपने साथ

    और रूप बदल-बदलकर

    मुंबई, मेरठ, ढाका और लाहौर में घूमता है।

    अपनी सकीना के तमाम दर्द

    और निराशा के बावजूद

    मैं देशों की सरहदें पार कर फिर आया हूँ

    उन लोगों को न्योतने

    जो आज भी करते हैं

    टोबा टेक सिंह की धरती को प्यार।

    मैंने अपनी सकीना के बालों से

    मेघों के टुकड़ों को चुन-चुनकर

    एक घर बनाया है

    जहाँ आज भी सकीना

    अपनी यादों और ख़्वाबों के दीए जलाती है।

    क्या तुम एक दिन के लिए भी

    मेघों के घर में रहने

    टोबा टेक सिंह की धरती पर चलोगे?

    वहाँ आज भी इक़बाल

    कृष्ण की बाँसुरी बजाता है

    वहाँ मरियम की आँखों से

    बुल्लेशाह के गीत छलकते हैं

    वहाँ आज भी मस्त कलंदरों की ज़मात रहती है;

    हमेशा जवान रहती है

    टोबा टेक सिंह की धरती।

    दोस्तो!

    उसे किसी सुल्तान ने नहीं

    दीवानों ने बसाया है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आशा इतिहास से संवाद है (पृष्ठ 59)
    • रचनाकार : सत्येंद्र कुमार
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

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