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टप्पा और पाकिस्तान

tappa aur pakistan

यतींद्र मिश्र

यतींद्र मिश्र

टप्पा और पाकिस्तान

यतींद्र मिश्र

और अधिकयतींद्र मिश्र

    उस तरह तो नहीं थिरकता अब रेगिस्तान का आँगन

    उस तरह कबीलों में घूमते नहीं ऊँटहार अपने ऊँटों के साथ

    और वह अब तक की जानी-पहचानी लोकधुन

    नहीं पिरोती पंजाब और सिंध का चमन

    ये टप्पा गाने वाले

    ये ऊँट चराने वाले

    ये रेगिस्तान से गुज़रकर उधर

    पाकिस्तान तक जाने वाले

    ढूँढ़ने पर मुश्किल से मिलते हैं अब

    और यही हाल उधर का भी हो गया है

    रावलपिंडी से लेकर पेशावर लाहौर तक फैली

    पंजाबी बोली और सुनहरी रेत को एक रंग करती

    टप्पा गायकी खोने के कगार पर है

    वैसे खोने के मामले में पूरा इतिहास ही बना डाला है हमने

    जैसे पंजाब सिंध का यह सलोना संगीत

    कहीं गहरे से याद दिलाता है कि खोने को तो

    हम सरहदों में बँटी रिश्तों की लोनाई

    खो आए अट्ठावन साल पहले

    छोड़ आए दूर महाराष्ट्र के सांगली मिरज़ में

    देश भर के लिए तानपूरा बनाने की कारीगरी

    और यह पुश्तैनी धंधा बिसराकर

    मिरज़ कुछ नया ही गढ़ता है इन दिनों

    ऐसे में टप्पा एक सभ्यता को गाता

    एक सभ्यता के लोप का प्रतीक बन गया है

    ऐसे में शोरी मियाँ का शुरू किया यह गंगा जमुनी जहूरा

    रेत में कहीं दम तोड़ने लगा है

    शोरी मियाँ भी कहाँ जानते थे

    जिस सहरा की भयावह रातों को

    ख़ुशनुमा ढंग से काटने के लिए वे

    चाँद-सितारों से सजा टप्पा बनाकर लाए थे

    वह रातें तवारीख़ में बिखरी सियासतों ने

    खींच कर लंबी कर दी हैं

    ये टप्पा गाने वाले

    ये ऊँट चराने वाले

    सतरंगी पगड़ियाँ पहने वे

    नेहरा लगाने वाली गोरियों को बुलाने वाले

    पता नहीं कहाँ चले गए

    पंजाब के घर-घर में मिलने वाले

    छाछ और सरसों के साग की तरह

    इन बोल बंदिशों पर वहाँ की सोहनियाँ

    कैसे भूल गईं फुलकारी करना

    भैरवी मुल्तानी बरवा और काफ़ी की पुकार

    कहाँ जाकर डूबी पता नहीं लगता

    सहरा में कि चिनाब में

    अमृतसर में कि लाहौर के अनारकली बाज़ार में

    अपने दम को साधे साईं के वे सच्चे बंदे

    आजकल कहाँ गाते हैं मियाँ नज़रे नेईं आन्दा वे

    छोटे-छोटे बादलों के समूह जैसे आपस में गुँथे हुए

    हज़ारों छोटे-बड़े झरने एक ही मेरुखंड की धरती पर गिरते हुए

    अपने में व्यस्त तत्परता से आगे

    निकलती हुईं जैसे ढेरों तितलियाँ

    वैसे ढेरों फुदकते लफ़्ज़ों की चाल में ढला टप्पा

    महाराष्ट्र के नाट्यसंगीत से मिलकर

    बंगाल और आगरा तक आया

    इसने हमारे विरह और प्रेम को भी

    संयम से बरतना सिखाया

    इधर जयपुर अतरौली की गलियों में इसे

    साधते रहे जीवन भर मंझी ख़ाँ

    दूर लाहौर में अंतिम दिनों तक

    गाती रहीं रोशनआरा बेग़म यही टप्पा

    इधर भी संगीत और पंजाब की बोली-बानी

    उधर भी यही हाल हर गायक फ़नकार का

    इधर भी पाकिस्तान की सरगम भरी दुनिया

    उधर भी गाने वाले अपनी मिट्टी की सोंधी गमक में महफ़ूज़

    यह एक ऐसा समय था

    जब षडज से निषाद तक की आवाजाही में

    दिन में कई बार आपस में खुलते थे

    दो घरानों के किवाड़

    कई तरह से भरी जाती थी सरगम

    तानों की घूमर जैसी तेज़ गोलाई में

    कई-कई दिनों तक अबूझ रह जाता था

    गाई जा चुकी बंदिश का मिसरा

    आज यह टप्पा गुम हो गया है

    दौड़-भाग से भरी ज़िंदगी

    और उसी तरह भागते हुए बिना अर्थ के

    शोर वाले संगीत में

    फिर भी अनारकली बाज़ार से गुज़रते हुए

    रोशनआरा बेग़म की तान जब-तब कानों में पड़ती है

    तब याद आते हैं बरबस उस वक्त

    जयपुर घराने के आकाश तले

    मंझी ख़ाँ अपने हवेली संगीत से

    टप्पा का अंग निकालते हुए

    उस समय शोरी मियाँ यकीनन यही कहते मिलेंगे

    मियाँ वे जाने वाले तानूँ अल्ला दी क़सम, फेर

    ये टप्पा गाने वाले

    ये सहरा के आर-पार घर बसाने वाले

    ये उर्दू पंजाबी हिन्दवी को दोस्त बनाने वाले

    अपने ऊँटों पर बैठकर

    जाने किधर निकल गए?

    स्रोत :
    • रचनाकार : यतींद्र मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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