रीतिकाल की कविता में
बच्चों की इतनी ही चर्चा है
कि वे पैदा हुए!
पालने में उनको सुला-फुलाकर
चली परकीयाएँ
आदर्श प्रेम की अनंत-सी तलाश में!
एक दोहे में बिहारी ही
कहते हैं कि बच्चा पैदा हुआ,
पिता ज्योतिषी था,
कुंडली बनाई बेटे की तो
पितृघातक योग देखकर डरा,
पर दूसरा योग ‘जारज’ जो दीखा
तो मनमोदक लूटता हुआ
सोचने लगा कि मरेगा रक़ीब!
परकीया के बच्चे
कभी तो बडे़ होते होंगे ही,
पचपन प्रवाद घेरते होंगे उनको,
क्या पूछते होंगे माँ से वे,
माँएँ क्या कहती होंगी उनसे—
सोचती हुई दंग हूँ,
तंग हूँ
ये भी पढ़कर कि
‘‘एक धूर्त नायक ने
जब एक आसन पर बैठी
अपनी दोनों प्रेमिकाओं को देखा
तो आँख-मिचौली भाव से
एक की आँख मूँद ली
और गर्दन घुमाकर
दूसरी का मुँह फट चूम लिया।’’
धूर्त ही सही, लेकिन
नायक कहलाया ये बंदा!
पर विलोम जो इसका सत्य होता
यानी आँख मूँदकर एक का
दूसरे का मुख
चूमती हुई
कोई औरत बखानी जाती
तो ‘नायिका’ के आसन से गिरकर
निश्चय ही ‘पुंश्चली’ कहलाती!
परकीया भी चित्रित होती हैं
एक ही व्यक्तिक्रम सँभाले!
सोचती हूँ ये भी
इतनी असुरक्षा और घचर-पचर
झेलने को तैयार
जो भी औरत होती होगी—
निश्चय ही धुर बचपन में वह किसी नीरस, सपाट, क्रूर, बकलोल से ब्याही जाकर
रोज़-रोज़ की किचकिच से थक गई होगी।
‘साहित्य दर्पण’ में कहती है परकीया—
‘‘ओ चतुर चितचोर!
तुम्हारी लुभावनी चितवनों से अब
कुछ भी नहीं बनाता,
अब मेरी साँसों की आवाज़ पर ही
मेरे बच्चों का मरखंड पिता
जाता है खीज!
सौतें मन की बातें झट सूँघ लेती हैं
सास इशारे ताड़ लेती है,
और देवरानी-जेठानी भी अब तो
आपस में मुस्का देती हैं मुझे देखकर!
हाथ जोड़ती हूँ, घर आना मत!’’
समझ में नहीं आता सहसा
परकीया को चिंता
लोकलाज की है, निराश्रय हो जाने की
या अपने प्रियतम के
आसंत अपमान की!
स्वाधीनमतृका, खंडिता,
मानवती, अभिसारिका,
कलहांतरिता, विप्तलब्धा,
प्रोषितमतृका, वाक सज्जा
या विरहोत्कार्णता—
किसी कोटि की हो परकीया तुम,
तुम उमड़ती है करुणा ही
अपने पतियों से प्रताड़ित
प्रप्रप्रपितामहिया-मातामहियो—
परकीया बनने की
जब ठान ही ली होगी तुमने—
निलाच्छेति, मुहमित,
मोहाचित, हसित, चकित
चच्ची-सी
संशयथकित-सी तुम
क्या सोचती होगी
तकिए में मुँह गाढ़कर
आने बारे में!
- रचनाकार : अनामिका
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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