मैं नदियों को बीच में कंधों पर उठाए
चल रहा हूँ उस बियाबान में
उज्जवल आदर्शों की कब तक घुड़कियाँ सहता
पशेमान होते हुए?
मैं खींच रहा हूँ अपनी विकट चुंबक से
लोगों में घुसी कीलों को
तार-सा तान रहा हूँ ढीले समुदाय को
मैंने अपने प्रवाहों पर भाखड़ा-नांगल खड़े कर
जो विद्यत पैदा की थी
उसे संचरित कर रहा हूँ
ख़ास-ओ-आम के अंदरूनी इलाक़ों में
मैं एक अप्रसिद्ध वैज्ञानिक की तरह
घोक रहा हूँ किसी विचित्र प्रयोग को
द्रवों को एक दूसरे में बदल रहा हूँ
पता नहीं, कब किससे
कोई चमचमाता आविष्कार हो जाए
केंद्रीय तार-घर हूँ
मेरे संवेदित खटकों पर
अनेकों उँगलियाँ बारहखड़ी लिख रही हैं
और मैं रहस्योद्घाटन कर रहा हूँ
कूट संदेशों का
दोड़ रहा हूँ सन्नाता हुआ सनसनीख़ेज़ रिपोर्ताज-सा
दूरियों को गटक रहा हूँ धड़ाधड़
भू-गर्भ में धावमान रेल-सा
मुँह फाड़े ध्यानावस्थित हूँ तोप-सा
निर्णायक मोर्चे पर
सर्प की तरह लपलाता मुँह बढ़ा कर
छातियों पर लोट रहा हूँ छलियों के
चक्कर भर रहा हूँ असमानों में
टोह लेने युद्धक विमान-सा
उमग रहा हँ ख़ुशी के ज्वर में
खड़ी फ़सल-सा
टा-टा करते हुए बलियों से
क़वायद कर रहा हूँ सैनिकों के पैरों में
तीसमारख़ाँ मुद्रा में
भारतीय भीड़ों-सा सिलसिला पा गया हूँ
अपनी कथित विशृंखलता में
भीमकाय यंत्रों के राग-भैरव में
मंजीरे-सा खनक रहा हूँ एकांत में
पपीहे-सा रट रहा हूँ पिऊ-पिऊ
भोंपुओं के कानखाऊ शोर में
फुँक रहा हूँ पत्थरों-सा डरावनी भट्टियों में
वज्रलेप बनने की प्रक्रिया में
त्रिकूट की टिकिटी पर रामायण-सा धरा हूँ
गीता-सा गूँज रहा हूँ गुडाकेशों में
अपने अस्तित्व-बिंदु के फैलाव पर प्रफुल्लित हूँ
विस्मित हूँ अपनी विश्वम्भरता भर!
- पुस्तक : निषेध के बाद (पृष्ठ 93)
- संपादक : दिविक रमेश
- रचनाकार : विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
- प्रकाशन : विक्रांत प्रेस
- संस्करण : 1981
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