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परदेश की ज़मीन के ख़्वाब-सा

pardesh ki zamin ke khwab sa

रति सक्सेना

रति सक्सेना

परदेश की ज़मीन के ख़्वाब-सा

रति सक्सेना

और अधिकरति सक्सेना

    वह उसे मुस्कुराते हुए देखना चाहता था

    परदेश की ज़मीन के ख़्वाब-सा

    वह उसे नाचते हुए देखना चाहता था

    वायलिन के तारों पर सुरों-सा

    वह देखना चाहता था उसकी गोदी में

    सोते हुए बच्चे के होंठों पर दूध की लकीर को

    वह उसे सहेजता रहा अपने डिब्बे में रखी

    बासी रोटी-सा,

    वह उसे बचाता रहा उसे

    अलबेनिया और सरेबिया के बीच

    चारों खिंचे बाड़े में

    कलियों की तरह खिल आए काँटों से

    वह उससे प्रेम करता रहा

    अपने देश की सरहद से कहीं ज़्यादा

    लेकिन वह उसे खो बैठा

    हक़ीक़त से कहीं ऊपर के सपनों की दुनिया में

    बिल्कुल अपने दुश्मन देश के युवा की तरह।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रति सक्सेना
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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