प्रार्थना तो वही
जो कविता की तरह
अचल हो कर भी स्पंदनशील है
शब्दों के स्थिर शिल्प में भी जो बँधती नहीं,
और ऊगती रहती है वृक्ष के समान।
प्राणों के बीज फूटते हैं,
और वह चढ़ती रहती है ऊपर को
हरे रंग की अग्निशिखा बनके
खोजती रहती है सतत असीम का ऊर्ध्वशिखर,
प्राणों में उसके पल्लवित होते ही
मानव स्वयं बन जाता है अवधूत अश्वत्थ;
उसके पैरों में उग आती हैं जड़ें
और सोखने लगती हैं
इतने दिनों की जमी हुई मौन अंधी परतें रसातल की;
जिसके दाहक रस के कारण
उसके पत्ते झरने लगते हैं,
मौन का मंत्र जपते हुए
निष्फलता की उपासना में
वह आपाद-मस्तक पूर्ण सफल होता है;
और उसके अंगों से बहते हैं
प्रकाश के निर्झर।
ऐसे शिशिर में स्नान करने के बाद ही
बसंत का स्पर्श मिल पाता है;
तब प्रार्थना ही
प्रसाद बनके
ज्योति के समान जलने लगती है,
लेकिन उस ज्योति में
काजल नहीं होता
उसकी छाया नहीं होती।
- पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 112)
- रचनाकार : बा. भ. बोरकर
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
- संस्करण : 1965
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.