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परंपरा में

parampara mein

सविता सिंह

सविता सिंह

परंपरा में

सविता सिंह

और अधिकसविता सिंह

    दूर तक सदियों से चली रही परंपरा में

    उल्लास नहीं मेरे लिए

    कविता नहीं

    शब्द भले ही रोशनी के पर्याय रहे हों औरों के लिए

    जिन्होंने नगर बसाए हों

    सभ्यताएँ बनाई हों

    युद्ध लड़े हों

    शब्द लेकिन छिपकर

    मेरी आँखों में धुँधलका ही बोते रहे हैं

    और कविता रही है गुमसुम

    अपनी परिचित असहायता में

    छल-छदम् से बुने जा रहे शब्दों के तंत्र में

    इन नगरों के साथ निर्मित की गई एक स्त्री भी

    जिसकी आत्मा बदल गई उसकी देह में

    दूर तक सदियों से चली रही परंपरा में

    वह ऊँचे ललाट वाली विदुषी नहीं

    जो पैदा करे स्पर्धा

    वह रही सभ्यता के तल में दबी

    मधुमक्खियों सरीखी बुनती छत्ता

    समझती उनकी संगठन कला को

    प्रतीक्षारत वह रही

    कि अगली बार बनने वाले नगरों में

    काम आएगी यक़ीनन उसकी यह कला

    शब्दों के षड्यंत्र तब होंगे उसकी विजय के लिए

    बनेंगे नए नगर फिर दूसरे

    युद्ध और शांति पर नए सिरे से

    लिए जाएँगे फ़ैसले

    स्रोत :
    • पुस्तक : अपने जैसा जीवन (पृष्ठ 10)
    • रचनाकार : सविता सिंह
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2001

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