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पानी जैसे जानना

pani jaise janna

शचींद्र आर्य

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पानी जैसे जानना

शचींद्र आर्य

और अधिकशचींद्र आर्य

    कोई क्षण होता होगा, जब हम अपने से बाहर किसी व्यक्ति को जानने की इच्छा से भर जाते होंगे। यह इच्छा हम सबमें सामान रूप से पाई जाती है। पाए जाने का यह अर्थ नहीं हम हमेशा इस इच्छा से भरे रहते हैं। कहा न, कुछ क्षण होते हैं, जो उस ओर ढकेलते हैं। यह जान लेने की कामना हमारी जिज्ञासा नहीं है। यह ख़ुद से बाहर देखना है। उन तालाबों का बादलों से भर जाना है, जो सूख रहे हैं। तालाब बादलों को बुलाते हैं। जैसे एक तालाब हुआ ‘ताल कटोरा’। यह आपसी संबंध किसी व्यक्ति के प्रति अपने आकर्षण से भी उत्पन्न हो सकता है। आकर्षण पानी है। पानी जैसा गुण उसे ग्राह्य बनता है। यह ग्रहण कर पाने की क्षमता ही पानी को मूल्यवान बनती है। हमें पानी बन जाना चाहिए। सब हमारी इच्छा से भर जाएँ। तब हमें पल भर रूककर ख़याल करना होगा, उसमें ऐसा क्या है, जो उसे वैसा बनाता है।

    सिर्फ़ जितना हमें दिख रहा है, कोई सिर्फ़ उतना ही नहीं होगा। पानी भी वाष्प बनने के बाद दिखता कहाँ है? लेकिन क्या वह कहीं नहीं होता? नहीं। शायद भूगोल या मौसम विज्ञान जैसे अनुशासनों से पहले यह हम सब जानते हैं। भाप क्या है। भाप क्या कर सकता है। भाप ही जीवन है।

    वह लड़का जो किसी भाप-सी लड़की को अभी सलीक़े से जान भी नहीं पाया है, नहीं जानता उसके ताप से वह भी एक दिन भाप हो जाएगा। समानुपात में लड़की भी कुछ ऐसा हो जाने की तमन्ना से भर गई होगी, कोई कुछ नहीं कर पाएगा। वह आपस में अपनी उन रूढ़ आकृतियों में भले मिल पाएँ, उनका साहचर्य उन्हें ‘इलियट की कल्पना’ की तरह गलाएगा। वह पिघलते हुए किसी और आकृति में ढल जाएँगे। यह इन शब्दों के असहाय हो जाने का क्षण है, जहाँ देखने वाला इन शब्दों में मांसलता खोज रहा होगा।

    जो-जो उन बिंबों को अपने भीतर टटोलना शुरू कर चुके हैं, वे थोड़ा थम जाएँ। उनकी शब्दावली में भाप अभी घर नहीं करेगी। वे अपने इस देश-काल से पीड़ित हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शचींद्र आर्य
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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