पैराडाइज़ गली के लोग
pairaDaiz gali ke log
वह एक मशहूर गली है हमारे शहर में
अब शायद उतनी नहीं
जितनी वह रहा करती थी उन दिनों
जब हम जेबों में कंचे रखा करते थे
बहुत सारी चीज़ें फैली और जमी हुई थीं गली में
गली रास्ते से नहीं वाक़ई उन चीज़ों से बनी थी
जैसे गली के नुक्कड़ पर सैलून हुआ करता था अख़्तर चचा का
जिनकी कभी न ख़त्म होने वाली बातों के साथ
लगातार हिला करती थी उनकी महीन दाढ़ी
उनका अमूमन हर ग्राहक शायर होता था
दुकान की फ़िज़ाँ में तैरते रहते थे
बिखरे बालों के साथ मीर औ मोमिन के अशआर
इसी तरह एक अकेली बुढ़िया थी गली में
जो अक्सर दीवारों से बतियाया करती थी
दुख बाँटने वाली वे दीवारें अब इतिहास में भी नहीं हैं
दो बूढ़े भी स्थापत्य में शामिल थे उस गली के
वे लगातार शतरंज खेला करते थे वहाँ एकाग्र
कभी-कभी वे इतना स्थिर हो जाते थे कि
हम यह जानने के लिए छूते थे उन्हें
कि वे वाक़ई जाग रहे हैं क्या
वहाँ हमारे मतलब के आदमी थे गुलशन भाई
जिनकी खटमिट्ठी गोलियों के बदले
हम बनते थे उनकी गुलाबी चिट्ठियों के क़ासिद
एक बेहद बिगड़ैल आदमी भी बाशिंदा था इस गली का
जो बिगड़े साज़ों की मरम्मत किया करता था
वह बेहद मार्मिक धुनें बजाया करता था उन पर
गली के आख़िरी छोर पर वह पुराना सिनेमाघर था
जिसके नाम पर था इस गली का नाम
जिसमें हम बेरोक-टोक घुस जाया करते थे
संटियों और छड़ियों की मार से बेपरवाह
आज हम उसे याद करते हैं
एक धुँधले पर्दे और एक विशिष्ट गंध के लिए
अब भी बहुत कुछ बसता है पैराडाइज़ गली में
चमकदार चीज़ों और चमकदार लोगों के साथ
फिर भी जितना अब है
उसे कहीं ज़्यादा बसा करता था उन दिनों
जब वहाँ रहते थे वे लोग
वहाँ बसती थी वह विशिष्ट गंध।
- पुस्तक : पीली रोशनी से भरा काग़ज़ (पृष्ठ 55)
- रचनाकार : विशाल श्रीवास्तव
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2016
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