पहली कविता की आख़िरी शाम
pahli kawita ki akhiri sham
पहली कविता की आख़िरी शाम
नीले दरख़्तों के साए में तुम्हारे
बेचैन हाथ
पीले पड़ते हुए।
क्राटन के लंबे पत्तों की तरह हिलते हैं
यों दरख़्त भव्य काले हैं
घनी और जड़ चाँदी की हल्की पर्त
चाँदनी में गूँज और गंध-वसंत की वापिसी की
लगातार आहटें
और, नीले सायों का बेतरतीब
जाल
ओस भीगी धरती पर (रौंदी हुई फिर भी
हरी घास)
बुनती हैं झुकी डालें
—बेचैन हाथों की ज़र्द उँगलियाँ
अचानक चुप हो जाती हैं
अनदिखे सितार का एक भी तार नहीं सिहरता
शतरंज के खेल में खोई हुई किश्ती
ढूँढ़ता हुआ हर शाम यहाँ इस चंपक-वन
तक मैं बेकार चला आता था जबकि आज
की शाम (या ऐसी हर शाम)
अनकहे-अधबने शब्दों की शाम है
सामने झील है सोई हुई
जिसका जल
भविष्य की तरह स्याह परछाइयों में
ठहरा हुआ है
अव्यक्त। इसे कभी कोई शब्द
नहीं देगा
प्रत्येक शब्द में बीते हुए किसी
क्षण का स्वाद
किसी अनुभव की आसक्ति होती है
खंडित शब्द—
जीवन दिया करता है
तुम व्यतीत के लौट आने के लिए की गई
निरर्थक निरीह प्रार्थना जैसी लगती हो
तुम स्वयं को अब और मेरे
सहमे हुए होंठों पर
नहीं चाहती हो दुहराना—
खोई हुई किश्ती के लिए
इस नीली झील के पास बार-बार आना
नहीं चाहता और वक़्त के पहरेदार इन
नीले दरख़्तों का गिरोह
तुम्हारी प्रार्थना बनी हुई मेरी
आदिम बनवासी पुकार—
मेरी पुकार के अंधे अजगर को
अपने अँधेरे में गिरफ़्तार कर
लेता है।
अब हम किसी कविता में नहीं
खुलना चाहते
बंद हैं प्रतीकों के द्वार
यह वसंत नहीं है दूर तक चली
जाती हुई पहाड़ी गुफा के
अंत में पड़ी हुई लाल-पत्थर की
भारी चट्टान
इसे तोड़ना नहीं चाहता है इतिहास
वह स्वयं टूटना नहीं चाहता है।
इतनी मंज़िलों के पार आकर इस समय
इस क्षण
(जहाँ नीलापन शून्य में अब तक रुका हुआ है)
यह जल है
इसकी गति ही है बह निकलना
हमें इतना नहीं है विश्वास
सूरज डूबने की अविरत प्रतीक्षा में
ही यह शाम
यह झील, यह मौसम, ये नीले दरख़्त
हम-तुम
रुके हुए हैं। हम तुम रुके हुए हैं।
दूर के बंद कारख़ानों की चिमनियों
की तरह
—हम में धुआँ भी नहीं है
नहीं है अनुभव की वह जादूगर चिनगारी
जो शब्द को एक अर्थ बना देती है
जैसे यह शाम
जैसे तुम्हारे बेचैन हाथ
ज़र्द पड़ते हुए
सिहरते हुए। मगर
उस अनदिखे सितार का एक भी तार
नहीं सिहरता है।
- पुस्तक : ऑडिट रिपोर्ट (पृष्ठ 126)
- रचनाकार : राजकमल चौधरी
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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