भोर हो चुकी होती है—
सुबह घूमने वाले आधा रास्ता पार कर चुके होते हैं,
तब नई कॉलोनी के किसी दफ़्तर की
रात भर चौकीदारी करने के बाद
वह बूढ़ा मुसलमान
अपनी सफ़ेद दाढ़ी और यातना से तपा चेहरा लिए
आता है,
और ढाल पर बिछे उस बोगनबेलिया के बग़ीचे को
पार करते हुए
पुराने शहर की ओर उतर जाता है।
एक देवता की तरह निस्संग और नि:स्पृह
वह अपनी समूची ज़िंदगी और उसके सुख-दु:खों को
पान की पोटली की तरह
एक छोटी-सी झोली में डाले हुए,
हर रोज़ जाता है
किसी जनाकीर्ण मुहल्ले के धीरे-धीरे ढहते घर की ओर।
वह किसे देखता है और किसे नहीं
यह कहना मुश्किल है—
उसके चेहरे पर मुतमईन होने का भाव होता है
कि उसने रात की चौकीदारी ठीक से पूरी की।
वह बग़ीचे के घुमावदार रास्तों पर नहीं
ख़ुद अपनी बनाई पगडंडी पर चुपचाप चलता जाता है—
उसके पास शायद नहीं है शहर की वारदातों की ख़बर,
तंदरुस्ती बनाए रखने के लिए
सुबह-सुबह चिकनी-चुपड़ी सड़कों पर घूमते
खाए-पिए लोगों की ख़बर,
चिड़ियों-पक्षियों, सूखी पत्तियों, रात की नमी और
पँखुरियों के एक चकत्ते पर सोई आदिवासी मज़दूरिन की ख़बर—
पर कभी-कभार वह सिर ऐसे झटक ऊपर देखता है आसमान की तरफ़
मानो किसी बूढ़े ईश्वर की तरफ़
जैसे उसे हर हालत में अपने आदमी होने की पूरी ख़बर है।
- रचनाकार : अशोक वाजपेयी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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