दादी कोंछ में तेरी मुँह छिपाए फूट-फूट रोता मेरा बचपन
तेरे साथ ओझल हुआ नज़रों से चला गया केंद्र मेरी ज़िंदगी का, मेरा मर्म
ढँक रखा तेरे पल्लू के नीचे। बची हुई ज़िंदगी का यह घेरा अब
ढोऊँ मैं कितने दिन? दीर्घजीवी आनुवंशिकता को सँभाले तेरी
वृद्धावस्था के बेरहम डर की विसर्जनपूर्व यह खटिया
लादे फिरूँ कितने दिन अपनी पीठ पर?
मेरे लिए लाए कैथे की मधुर गंध दिनभर आँचल में सँभालते हुए
ज़िंदगी के टीसने वाले घावों के इर्द-गिर्द फिरता रहा तेरा मायूस हाथ
मेरे वक़्त थी तू ही दाई तूने ही पहली साँस भरकर मेरे मुँह में
किया शंखनाद इस ज़िंदगी का। मनाई छठी छिदाए कान बाँधा मौर
जले पैर पर तेरी हथेली की फूँक तालु के घाव पर आँसुओं की बिछावन
तेरे अघोरी इलाज गर्म कलछी चर्रर्र दाग, उठती सीना फाड़ती चीख पर
केवल करुणा से हवा करता तेरा फड़फड़ाता प्रदीर्घ पंख।
नब्बे साल की तुझे छोड़ गए मेरे पास माँ- बाबूजी कहते हुए—
मर जाए तो देना फूँक इधर ही मत देना ख़बर भी। बोली तू—
जहाँ रखेंगे वहाँ रहूँगी, जिऊँगी मरने तक। मेरी मददगार बनी तू उस एक साल
अध्ययन की खड़ी कुर्सी के पीछे मेरी पीठदर्द की आड़ आधार बनी तेरी खटिया
अमृतांजन की गंध और विट्ठल का नाद पिनपिनाता लगातार रात-दिन
अवसरोनुकूल छंद—ससुराल ऐसा दुष्ट सखि कैद करके पीटा
तेरे पीहरपन के लिए मैंने यह सब सहा बेटा
उत्खनन नब्बे पावसों का मानचित्र मृत्यु के प्रदेश में पहुँची पीढ़ियों के
बेटी-दामाद पोते-पोतियाँ सास-ससुर ननद-जेठानी—देवरानियाँ दादा-परदादा जो
जो गए वे सब
जी रही थी तू अपनी ज़िंदगी को मैं अपनी—एक ही देशकाल में
वे दिन थे मेरे भी कड़वे अपमानों के ठोकरों के टकराहटों के घावों के
आंदोलन के सिद्धांत के दृढ़ता के गृहस्थी के रस्से बुनने के
वेतन और ख़र्च की चिंता से नींद न आने के सामने देखने के जागने के।
दादी, और कुछ भी दे न सका मैं तुझे—
बस सुनाए अपने साथ फ़िल्मी गीत लोकगीत रेकॉर्ड टेप दुनिया भर के
कूट चर्चाएँ अनुसंधान की साहित्य की। कराए भोजन आधार आसरा
दीवार पकड़े चलते-चलते फेरने दिया हाथ रुआँसा सिर पर
ठूँठ का पल्लव से स्पर्श, और आख़िर में पूरी की ज़िद घर वापिस लौटने की
रोज़ करती थी तैयारी अंधे हाथों से,
टालते-टालते महीना-भर बड़ी मुश्किल से पहुँचाया आख़िर
बचपन में जैसे तूने मुझे वैसे मैंने तुझे गोद में उठाए घर में
दुबारा नहीं हुआ मिलना ख़बर दी मुंशी ने फ़ोन आने की,
आप की ग्रैंडमदर गुज़र गई कल शाम को, बहुत याद कर रही थी, कहा है।
दादी, मर गई तू पर न कोई रोया न आया किसी का गला भर
दिखाई दी तेरी टूटी खटिया लहँगा चोलियाँ जस्ते की थाली
जिसकी मीठी रोटी नोचकर खाते थे आराम से बच्चे बिल्ली के
और ताक में अनेक सालों के वैधव्य की गवाह दाँत टूटी कंघी लकड़ी की
जिसमें फँसे श्वेत धवल बाल चिपक गए कसकर मेरी उँगलियों से
दादी, इक्यानवे सालों का तेरा उपला बन गया राख हमारे परिवार के दहकते
भानचूल्हे में
तेरी हाय लगे मेरे नाकाम माथे को जिसे जानलेवा मामूली मुहिमों से पहले समय-
समय पर
रख-रखकर तेरे श्रमजीवी चरणों पर छिजाया जिन्हें मैंने माँगते हुए यश
जो कभी नहीं दिख पाया तुझे और तेरा वरदान—सुखी रहो
जो मुझे प्राप्त हुआ लेकिन मोल जिसका समझ नहीं पाया मैं ज़िंदगी भर।
- पुस्तक : देखणी (पृष्ठ 49)
- रचनाकार : भालचंद्र नेमाड़े
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2017
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