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ओड़ा का पत्थर

oDa ka patthar

महेश चंद्र पुनेठा

महेश चंद्र पुनेठा

ओड़ा का पत्थर

महेश चंद्र पुनेठा

और अधिकमहेश चंद्र पुनेठा

    बहुत बाद में

    गाढ़ा जाता है खेत के बीचोबीच

    लेकिन

    बहुत पहले

    पड़ जाती है नींव इसकी

    दिलों के बीच

    जैसे दिलों की खाइयाँ

    उभर आती हों

    एक पत्थर की शक्ल में

    फिर भी हमेशा याद दिलाता है यह

    कभी सगे रहे थे

    इसके दोनों ओर के हिस्सों के मालिक।

    जब माँ कलेवा लेकर आई होगी

    धान मड़ाई के दिनों

    बैठकर इन्होंने

    एक ही थाली में खाया होगा

    एक ही गिलास से

    खींचे होंगे छाछ के लंबे-लंबे घूँट

    उससे पहले

    एक साथ खेले-कूदे होंगे

    एक साथ रोए होंगे

    एक साथ हँसे

    एक-सी ही धूप, हवा, पानी का

    स्पर्श पाया होगा

    किसी बात में तू-तू, मैं-मैं हुई होगी

    लेकिन ज़्यादा देर तक

    अबोले नहीं रह पाए होंगे

    ख़ूब रोए होंगे उसके बाद

    गले मिलते हुए

    एक साथ गए होंगे

    किसी बाहरी से मुक़ाबला करने।

    क्या कम हैं ये यादें

    इस पत्थर को उखाड़ फेंकने के लिए?

    जब गिराई जा सकती हैं बड़ी-बड़ी दीवारें

    यह तो एक पत्थर मात्र है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : महेश चंद्र पुनेठा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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