ओ घोड़े
o ghoDe
एक घोड़ा हूँ,
अपने अकेले अकेलेपन से युद्ध करता हुआ,
याद करता हूँ किन लोगों को विदा किया था पिछले बरस,
उसके पिछले बरस किन चेहरों पर मिट्टी पड़ गई,
कचनार के कौन से फूल संगमरमर के पत्थरों ने मार डाले?
पहचानने की दुविधा में लोगों के हाथों की तलाशी लाता हूँ,
हिनहिनाता हूँ,
पाता हूँ बस चंद लकीरें, जिनमें कोई किसी का घोड़ा है और कोई घोड़ा मनुष्य है,
जाते हुए बरसों के पैर चूमता हुआ वक़्त,
हर दौड़ में साथ चलता है,
घोड़ों की स्मृतियों में नहीं कोई लड़की,
वहाँ तो बस घोड़े हैं, भागते हुए,
घोड़े कवि नहीं होते,
घोड़े दौड़ते हैं पैरों से,
और कवि दौड़ता है स्मृतियों में घुटनों से,
घोड़े मनुष्य भी नहीं होते,
किंतु होते हैं अभिमानी क्योंकि माना गया है उन्हें पौरूष और शक्ति का प्रतीक,
लेकिन घोड़े, घोड़े होते हैं एक पूँछ के साथ!
मैं भी हर रात बन जाता हूँ दुख पहनकर घोड़ा,
नंगे पैर दौड़ता हूँ,
मैं हारे हुए राजा का ज़ख़्मी घोड़ा हूँ,
जो झील में अपने ख़ूँ में भीगे खुर देख रहा है!
घोड़े ड्राइंगरूम की हर पेंटिंग में 'भागते' दिखते हैं!
मैं वो घोड़ा, जिसकी गर्दन पर नहीं अयाल,
केवल दुख!
- रचनाकार : ज़ुबैर सैफ़ी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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