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न्याय और अन्याय के बारे में कुछ मान्यताएँ

nyay aur annyaye ke bare mein kuch manytayen

संजय कुंदन

संजय कुंदन

न्याय और अन्याय के बारे में कुछ मान्यताएँ

संजय कुंदन

और अधिकसंजय कुंदन

    न्याय और अन्याय के बारे में

    तरह-तरह की मान्यताएँ थीं

    कुछ लोगों का मानना था

    कि यह पृथ्वी तभी तक सुरक्षित है

    जब तक न्याय ज़िंदा है

    हालाँकि न्याय को देख पाना

    इतना आसान नहीं

    और उसे पाना तो

    माशूक़ा को पाने के बराबर था

    पहाड़ तोड़कर नदी लाने की तरह

    कुछ लोग तो पूरा जीवन

    गुज़ार देते थे न्याय की तलाश में

    एक आदमी न्याय पाने के चक्कर में

    अपनी देह भी गँवा बैठा

    जब देह थी उसके पास न्याय नहीं था

    न्याय था तो देह नहीं थी

    वह समझ नहीं पा रहा था

    कि उस न्याय का क्या करे

    एक समय था जब ईश्वर

    न्याय को लेकर बहुत चिंतित रहता था

    कई बार वह ख़ुद चला आता था पृथ्वी पर

    न्याय की रक्षा के लिए

    हमारे पास न्यायी राजाओं के कई वृत्तांत हैं

    जब मृत ढोरों के चमड़े छीलता एक आदमी

    मुग्ध हो उठता संहिताओं के नाद पर

    जब शब्दों की सीढ़ियों पर थरथराते पैरों से

    चढ़ने लगता वह

    सक्रिय होते न्यायी राजा

    वे एक बाण से करते उस आदमी का काम तमाम

    उसका रक्त ज़रूरी होता था

    न्याय को जीवित रखने के लिए

    न्याय के बारे में एक मान्यता यह थी

    कि वह बहुत धीरे चलता है

    कुछ लोग कहते

    वह जानबूझकर धीरे चलता है

    ताकि बना रहे उन लोगों का रोज़गार

    जो करते हैं न्याय दिलाने का कारोबार

    न्याय के बारे में जब भी बात होती

    अन्याय का नाम ज़रूर आता

    इधर एक मान्यता ज़ोर पकड़ रही है

    कि न्याय अन्याय के साथ रहता है

    असल में न्याय वेताल हैं

    जो बार-बार अन्याय की डाल पर

    जा बैठता है

    उसे अन्याय की डाल से उतारकर ले आना ही

    सबसे बड़ी चुनौती है

    विचारक इस पर विचारमग्न हैं

    न्याय और अन्याय के बीच

    गहरे रिश्ते को देखकर कुछ लोग

    उन दोनों को जुड़वाँ भाई मानने लगे हैं

    अन्याय जब भी घूमने निकलता

    वह न्याय के कपड़े पहनता

    वह न्याय की तरह विनम्र बनने की कोशिश करता

    और अपना नाम न्याय बताता

    कई बार तो वह न्याय के पीछे-पीछे

    दबे पाँव चलता

    और उसकी पीठ के पीछे से चलाता

    एक ख़तरनाक हथियार

    जो लोग इस बात को

    समझने लगे थे वे न्याय को कोसते थे

    उनका विश्वास उठ रहा था न्याय से

    वैसे एक विचार यह भी है

    कि न्याय और अन्याय

    दरअसल दो हैं ही नहीं

    वे एक ही आदमी के दो रूप हैं

    फ़िल्म 'गोलमाल' में अमोल पालेकर की तरह

    लेकिन इस बात पर सब सहमत थे

    कि अन्याय की भी एक हद होती है

    वह पार नहीं कर सकता उस हद को

    एक दिन जब एक आततायी की देह में

    कीड़े बजबजाने लगते थे

    एक भूखा आदमी जीवन में पहली बार

    संतुष्ट होता था

    उसकी साँस में गर्म-गर्म रोटियों की भाप की तरह

    प्रवेश करता था न्याय

    स्रोत :
    • रचनाकार : संजय कुंदन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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