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निर्झर बह रहा है एक

nirjhar bah raha hai ek

विनय दुबे

विनय दुबे

निर्झर बह रहा है एक

विनय दुबे

और अधिकविनय दुबे

    निर्झर बह रहा है एक

    सात आसमानों के पार

    और दहक रहा है वसंत

    यहाँ पानी की सतह पर एक शहर है नींद से बोझिल घूमता हुआ

    परियों के साथ-साथ

    दूर दूर तक बिखरी पड़ी है धूप

    पहाड़ घूम रहे हैं हवाओं को चीरते हुए और जो जहाँ है वहाँ से भाग रहा है

    जीटी एक्सप्रेस के जनरल डिब्बे में

    डिब्बे की भीड़ में

    भीड़ के हाथों छातियों पैरों नथुनों साँसों

    पीठों पुट्ठों बक्सों थैलियों और

    महकते बसाते शरीरों में

    पिछले एक घंटे से दबा खड़ा हुआ मैं उसे याद कर रहा हूँ

    वह कि जो मेरी प्रेयसी है। वह कि जिसे महसूस करता हूँ मैं अपने

    कमरे के बीच किताबों में। किताबों के बीच सतरों में।

    सतरों के बीच शब्दों में। शब्दों के बीच ख़ाली जगहों में और

    ख़ाली जगहों के बीच अर्थों में

    वह कि डूबा रहता हूँ मैं जिसकी स्मृतियों में सुबह-शाम

    सड़कों बाज़ारों घरों और पास-पड़ोसों में

    ग्रीष्म ऋतु रही है

    रेलवे लाइन के दोनों तरफ़ कहीं-कहीं

    दूर-दूर तक दहकने लगे हैं पलाश

    मार्च का दूसरा पखवाड़ा है

    खेतों में गेहूँ कट रहा है

    और यहाँ-वहाँ पड़ा है पूलों में बँधा

    मैं उसे याद कर रहा हूँ अपनी प्रेयसी को

    कि वसंत का महीना है और वह लहरा रही होगी

    खेतों में आम के बौर और नई-नई पत्तियो में

    अभी बाक़ी है दसेक मिनिट

    होशांगाबाद पहुँचने में जीटी को

    कि नर्मदा ब्रिज पर पहुँच रही है

    हटिए श्रीमान हटिए कि पिछले एक घंटे से आप मेरे पैर पर पैर

    रखकर खड़े हैं और मैं आपको बरदाश्त कर रहा हूँ

    हटिए कि आप देश के प्रधानमंत्री हों या गोंदरमऊ के ग्रामीण

    हटिए कि एक निर्झर बह रहा है मेरी नसों में

    और मुझे उतरना है

    हटिए कि होशंगाबाद रहा है

    स्रोत :
    • पुस्तक : फ़िलहाल यह आसपास (पृष्ठ 59)
    • रचनाकार : विनय दुबे
    • प्रकाशन : मेधा बुक्स
    • संस्करण : 2004

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