निर्बंध
nirbandh
एक कीड़ा मेरे सामने रेंगता है : हो सकता है वह दंभी हो : परंतु
मुझे अपने पर मुस्कराने से रोक सकना उसकी
शक्ति से बाहर है,
वह मात्र प्रजातंत्र का नाम गुनगुनाता है और
सीढ़ियों से नीचे
उतर जाता है,
उसके टख़नों का दर्द उसकी वेश्यालयों में पाई गई
पत्नी से संबद्ध है और उसकी जाँघों के बीच का हिस्सा फूलकर
किस समय दे देगा एक पिल्ले को आकार, इसे जानने के लिए
उसकी पत्नी हमेशा एक बेहोश, बदबूदार और
मितली भरी आवाज़ के घंटी दबाने का इंतज़ार करती है।
उसने हमेशा सोचा है उसका नाम या तो जनखों में होना चाहिए या
शहर के दमदार ग़ुंडों में : उसे सहन नहीं होता कि वह
अँग्रेज़ी दवाइयों की लिस्ट को घोटता हुआ चुंबन ले अपनी बच्ची
की सहेलियों का।
उसकी आवाज़ में हमेशा एक
ग़ुर्राहट और नाराज़गी का भाव रहता है जो उसके दोस्तों को उसकी
पीठ पर छुरे भौंकने के लिए आज़ाद करता है
वह चालीस वर्ष का होने पर भी पुरुष न हो सका
और अपना ग़म ग़लत करने
के लिए उसने ग़ौर से देखा तेरह वर्षीय लड़की के उभार को और
उसकी शादी और अपने बुढ़ापे की फ़िक्र में क़लम को तलवार की
भाँति इस्तेमाल करने की सोचने लगा।
जूते के तलों से घिसते वर्षों ने उसे जिंसबर्ग बना दिया
और वह शहर की नालियों में रेंगने के
विभिन्न तरीक़ों की तलाश करने लगा
जब कहीं आवाज़ होती तो वह चौकन्ना होकर उछलता और अपनी
शिराओं के सनसनाने पर पत्नी के चिपके हिस्सों से नज़र बचा
एक कम उम्र लड़की के उभार को चीन्हने की कोशिश करने लगता।
परसों दुपहर भर वह कच्चे फूलों की गंध लेता रहा, वह ख़ुश था
कि कुछ लोगों ने उसे जंघावादी कहना बंद कर दिया है
सभ्रांत नागरिकों की टोली में मिलने के लिए उसने फ़ोहश गालियों
को रट लिया है : और ज़रा-सी दुविधा होने पर
बरसाती मेढक की भाँति टर्राना शुरू कर देता है।
उसके बहुरूपिए और जनखेपन को देखकर मुस्कराते हैं
बीवी-बच्चे और दोस्त और
बच्ची की उम्र चढ़ती सहेलियाँ :
परेशान हैं
कुछ भले पड़ोसी और कुछ
चुपचाप
क़तार लगाकर तमाशबीन बन जाते हैं।
शहर के सीमांतों से कोई नई ख़बर न आने पर और बेकार का
अवकाश कटाने के लिए कुछ दोस्त गुदगुदा देते हैं उसकी
नस और वह फ़ोहश आवाज़ में दहाड़ने लगता है।
शहर का एक हिस्सा बौखला कर रुकता है फिर तेज़ उफनती धार
बहने लगती है और सभी कुछ दलदल हो जाता है।
इस दलदल का कोई नाम नहीं है : कभी-कभी नीले चीत्कार के मध्य
फैल जाती है दुर्गंध
और दुर्गंध के कई नाम हैं
जो पीढ़ियों-दर-पीढ़ियों चले
आए हैं। उन्हें समझने के लिए नामर्दों और कायरों
की जमात लगानी पड़ती है और
सामांती इतिहास के पृष्ठों को देखना पड़ता है
मात्र एक सुराख़ के भीतर से निकलने वाले चूहे
उसकी बपौती सँभालने का दंभ भरते हैं
एक कीड़ा है जो
सड़कों पर रेंगता है : उसे
‘अस्मिता’ का हक़ मैंने परसों तक दिया था
मेरे न होने पर
उसकी आवाज़ एक संदूक़ के नीचे भुरभुराती रहेगी
संदूक़ के रंग
चमकेंगे विभिन्न नामों में, आकारों में : पर संदूक़ कभी
रेंगता हुआ घिनौना आकाश नहीं बनेगा
केवल एक संदूक़ होगा
क़ब्र :
एक कीड़ा है जो मेरे सामने रेंगता है : नसों, एड़ियों, टख़नों में
किंतु उसे ‘मैं’ होने का हक़
मैंने नहीं दिया।
एक कीड़ा है जो रेंगता रहेगा शताब्दियों की नसों में और
अट्टहास उसे घोंटता रहेगा
मृत्यु-वक्ष पर!
- पुस्तक : महाभिनिष्क्रमण (पृष्ठ 59)
- रचनाकार : मोना गुलाटी
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