नीलहे साहबों की कोठियों के क़िस्से
nilhe sahbon ki kothiyon ke qisse
बचपन में लगभग सरकारी क्वार्टरों में चूना होता था
लगभग क्योंकि वो उस तरह सरकारी क्वार्टर नहीं थे
जिस तरह कुछ होते हैं
वो शिक्षकों के क्वार्टर थे
कॉलेज के बग़ल में
और कॉलेज कितना सरकारी था
ये पता नहीं
वो एक महंथी अनुदान पर खड़ा कॉलेज था
सरकार भी तब बन ही रही थी
यानी आज़ादी के बाद की सरकार
और अब जब कमरों का रंग
बहुत बड़ी राजनीति है
इतने रंग हैं
कि नामो का आविष्कार संभव नहीं
उतनी ही नफ़ासत है
रंगों की
जितनी धाँधली
जो जितना बड़ा चोर है
उसके घर की दीवारें
उतनी ही चिकनी
ख़ाक रंग लाई है
केसरिया आज़ादी
इससे तो नीलहे साहबों की कोठियों के क़िस्से अच्छे
जो चंपारण ही नहीं
उत्तरी बिहार के
मेरे घर के आस-पास भी
नील की खेती करते थे
नील, जो मेरे बचपन के घर में
चूने में डलता था
और अजब खुली-खुली
बेघुटन आसमानी नीली होती थीं दीवारें...
- रचनाकार : पंखुरी सिन्हा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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