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नीले रंग की बिंदी

nile rang ki bindi

निलय उपाध्याय

निलय उपाध्याय

नीले रंग की बिंदी

निलय उपाध्याय

बड़े दिनों के बाद दिखा

अँधेरी मे ख़ाली डिब्बा

चढ़ा तो मिल गई विंडो सीट

बैठा पसरकर,

नौकरी मिल जाती है मुंबई में

नहीं मिलती लोकल में विंडो सीट

आज चेहरे से जी भर टकराएगी समुद्र की हवा

आँखों को मिलेगा सुख नज़ारों का

अचानक नज़र टिक गई

विंडो के ठीक नीचे

आराम से चिपकी थी नीले रंग की बिंदी

किसकी बिंदी है यह

ज़रूर कोई औरत बैठी होगी इस सीट पर मुझसे पहले

इतनी कोमल कि ललाट को देने के लिए थोड़ा विश्राम

शायद चिपका दी हो यहाँ दीवार पर

और भूल गई हो जाते वक़्त

यह भी तो हो सकता है कि साथ बैठा हो उसका पति

उसके सामने उतारकर चिपकाई हो

और छोड़ी भी हो जानबूझकर जताने के लिए

अपना ग़ुस्सा

तेरे साथ अब बिना बिंदी के रहना है

हो सकता है बिंदी के कारण

लग रही हो बहुत ख़ूबसूरत

और घूर रहे हों आस-पास बैठे और खड़े लोग

पछता रही हो कि क्यों गई

मर्दों वाले लोकल के डिब्बे में

और खीझकर चिपका दी हो

लोकल की दीवार पर कि लो जी भर देखो

चलती रही लोकल

उड़ान भरता रहा औरतों का सौंदर्य

उनकी ख़ुशियाँ

उनके दुःख

उसका रंग

उसका रूप

जाने कितने ललाटों पर चिपकाया मैंने

आँखों के आगे नाचते रहे जाने कितने चेहरे

कि गया मेरा स्टेशन

एक बार मन हुआ निकाल लूँ इसे

और ले चलूँ साथ

दूसरे पल ख़याल आया तो छोड़ दिया यूँ ही

क्या पता लोकल को देखकर

याद आया हो उसे अपना जीवन

और देकर बिंदी का उपहार

क़ायम किया हो बहनापा

कहा हो,

यह बिंदी तुम पर जँचती है

स्रोत :
  • रचनाकार : निलय उपाध्याय
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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