हालाँकि दरिया में डालना था
नहीं जान पाया कि डुबाना था या बहाना था
मैंने इसी कोशिश में ज़िंदगी के कई पन्ने ख़र्च कर दिए
मगर हर किताब ख़ामोश थी
इसलिए किसी सधे हुए सियासतदान की तरह
मैंने दरिया को क्षितिज की राह दिखाई
संचित नेकियों की नुमाइश लगाई
और तमाम बुराइयों को नेपथ्य में छिपाकर
ढोल पीटकर दुनिया को अपनी अच्छाई गिनाई
पर्दा उठते ही दर्शकों के सामने थी
धागों से बँधी मेरी नेकियों की कठपुतलियाँ
जिनके सूत्र मेरी ही उँगलियों से बँधे थे
मेरे संकेतों पर हो रहा था उनका अंग-संचालन
और वे उछल-उछलकर जैसे मेरे क़द को बड़ा कर रही थीं
इस तरह मैं नेता से अभिनेता की भूमिका में आ गया
मैंने एक जीवन में कई जीवन जिए
एक मुँह से हज़ार जाम पिए
एक चेहरे पर कई चेहरे लगाए
हर रात अपनी गर्दन को शरीर से उतारकर
सर से लेकर चेहरे तक नई पॉलिश करता रहा
कि अगले दिन चेहरे की झुर्रियाँ न दिखाई दें
कि बालों की सफ़ेदी मेरी उम्र की पोल न खोल दे
कि मुँह की दुर्गंध मेरे मद्यप होने की चुगली न कर दे
मुझे प्रेम की पूजा करनी थी
लेकिन मैंने इसे काम का मर्म समझा
मैंने पूजा को धर्म और धन-प्राप्ति को कर्म समझा
मेरे कर्म की किताब के हर पन्ने पर लक्ष्मी का चित्र था
प्रस्तावना में सिर्फ़ दो शब्द थे : शुभ-लाभ
मैंने शुभ को मिटाकर सिर्फ़ लाभ लिखा रहने दिया
इसलिए बाज़ार से पौरूष का एक खोल ख़रीद लाया
दिन भर अपनी जर्जर काया को पुरुषत्व से ढककर
शाम को सो जाता था घुटनों में सर रखकर
मैंने नर्क के द्वार पर स्वर्ग का एक टुकड़ा नीलाम किया
और सूरज का एक घोड़ा चंद्रमा में जोत दिया
मैं दौड़ा और ऐसे दौड़ा
कि मेरी दौड़ पर दुनिया दो ख़ेमों में बँट गई
आधी दक्षिण और आधी वाम में छँट गई
आस्तिकों ने इसे स्वर्गारोहण का नाम दिया
तो नास्तिक इसे आज तक पलायन कहते हैं
- रचनाकार : जावेद आलम ख़ान
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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