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स्वर्गीय-संगीत

saurgiyah sangit

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

स्वर्गीय-संगीत

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

     

    (एक)

    पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो।

    पुरुष क्या, पुरुषार्थ हुआ न जो;
    हृदय की सब दुर्बलता तजो।
    प्रबल जो तुममें पुरुषार्थ हो—
    सुलभ कौन तुम्हें न पदार्थ हो?
    प्रगति के पथ में विचरो उठो;
    पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो॥

    न पुरुषार्थ बिना कुछ स्वार्थ है;
    न पुरुषार्थ बिना परमार्थ है।
    समझ लो, यह बात यथार्थ है—
    कि पुरुषार्थ वही परमारथ है।
    भुवन में सुख-शांति भरो उठो;
    पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो॥

    न पुरुषार्थ बिना वह स्वर्ग है;
    न पुरुषार्थ बिना अपवर्ग है।
    न पुरुषार्थ बिना क्रियता कहीं,
    न पुरुषार्थ बिना प्रियता कहीं।
    सफलता वर-तुल्य वरो, उठो;
    पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो॥

    न जिसमें कुछ पौरुष हो यहाँ—
    सफलता वह पा सकता कहाँ?
    अपुरुषार्थ भयंकर पाप है;
    न उसमें यश है, न प्रताप है।
    न कृमि-कीट-समान मरो, उठो;
    पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो॥

    मनुज जीवन है जय के लिए—
    प्रथम ही दृढ़ पौरुष चाहिए।
    विजय तो पुरुषार्थ बिना कहाँ;
    कठिन है चिरजीवन भी यहाँ।
    भय नहीं, भव-सिंधु तरो, उठो;
    पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो॥

    यदि अनिष्ट अड़े, अड़ते रहें;
    विपुल विघ्न पड़ें, पड़ते रहें।
    हृदय में पुरुषार्थ रहे भरा—
    जलधि क्या, नभ क्या, फिर क्या धरा?
    दृढ़ रहो, ध्रुव धैर्य धरो, उठो;
    पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो॥

    यदि अभीष्ट तुम्हें निज सत्व है;
    प्रिय तुम्हें यदि मान महत्व है।
    यदि तुम्हें रखना निज नाम है;
    जगत में करना कुछ काम है।
    मनुज! तो श्रम से न डरो, उठो;
    पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो॥

    प्रकट नित्य करो पुरुषार्थ को,
    हृदय से तज दो सब स्वार्थ को।
    यदि कहीं तुमसे परमार्थ हो—
    यह विनश्वर देह कृतार्थ हो।
    सदय हो, पर दु:ख हरो, उठो;
    पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो॥

    (दो)

    नर हो, न निराश करो मन को।

    कुछ काम करो, कुछ काम करो, 
    जग में रहके निज नाम करो।
    यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो!
    समझो, जिसमें यह व्यर्थ न हो।
    कुछ तो उपयुक्त करो तन को,
    नर हो, न निराश करो मन को॥

    सँभलो कि सु-योग न जाए चला, 
    कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला?
    समझो जग को न निरा सपना, 
    पथ आप प्रशस्त करो अपना।
    अखिलेश्वर हैं अवलंबन को,
    नर हो, न निराश करो मन को॥

    जल-तुल्य निरंतर शुद्ध रहो, 
    प्रबलानल ज्यों अनिरुद्ध रहो।
    पवनोपम सत्कृतिशील रहो,
    अवनीतल वद् धृतिशील रहो।
    करलो नभ-सा शुचि जीवन को,
    नर हो, न निराश करो मन को॥

    जब हैं तुममें सब तत्व यहाँ, 
    फिर जा सकता वह सत्व कहाँ?
    तुम स्वत्व-सुधा-रस पान करो,
    उठके अमरत्व-विधान करो।
    दव-रूप रहो भव-कानन को,
    नर हो, न निराश करो मन को॥

    निज गौरव का नित ज्ञान रहे,
    “हम भी कुछ हैं”—यह ध्यान रहे।
    सब जाए अभी, पर मान रहे, 
    मरणोत्तर गुंजित गान रहे।
    कुछ हो, न तजो निज साधन को,
    नर हो, न निराश करो मन को॥

    प्रभु ने तुमको कर दान किए,
    सब वांछित वस्तु-विधान किए।
    तुम प्राप्त करो उनको न अहो!
    फिर है किसका यह दोष कहो?
    समझो न अलभ्य किसी धन को,
    नर हो, न निराश करो मन को॥

    किस गौरव के तुम योग्य नहीं?
    कब, कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं?
    जन हो तुम भी जगदीश्वर के,
    (सब हैं जिसके अपने, घर के)
    फिर दुर्लभ क्या उसके जन को?
    नर हो, न निराश करो मन को॥

    करके विधि-वाद न खेद करो,
    निज लक्ष्य निरंतर भेद करो।
    बनता बस उद्यम ही विधि है,
    मिलता जिससे सुख का निधि है।
    समझो धिक निष्क्रिय जीवन को,
    नर हो, न निराश करो मन को॥

    (तीन)

    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

    विचार लो कि मर्त्य हो, न मृत्यु से डरो कभी;
    मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी!
    हुई न यों सु-मृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए;
    मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
    यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥

    उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती;
    उसी उदार से धरा कृतार्थ-भाव मानती।
    उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
    तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
    अखंड आत्मभाव जो असीम विश्व में मरे,
    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥

    क्षुधार्थ रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
    तथा दधीचि ने दिया पदार्थ अस्थिजाल भी।
    उशीनर-क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
    सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर चर्म दे दिया।
    अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे,
    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥

    सहानुभूति चाहिए, महा विभूति है यही;
    वशीकृता सदैव है धनी हुई स्वयं मही।
    विरुद्ध-वाद बुद्ध का दया-प्रभाव में बहा;
    विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहा?
    अहा! वही उदार है परोपकार जो करे,
    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥

    रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,
    सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
    अनाथ कौन है यहाँ त्रिलोकनाथ साथ है;
    दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं।
    अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो भरे,
    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥

    अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े, 
    समक्ष ही स्व-बाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
    परस्परावलंब से उठो, तथा बढ़ो सभी;
    अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
    रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,
    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥

    “मनुष्य मात्र बंधु है” यही बड़ा विवेक है;
    पुराण पूरुष स्वभू पिता प्रसिद्ध एक है।
    फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं,
    परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
    अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे,
    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥

    चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
    विपत्ति-विघ्न जो पड़े उन्हें ढकेलते हुए।
    घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
    अतर्क एक पंथ के सतर्क पांथ हों सभी।
    तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
    वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥

    (चार)

    मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है।

    बना लो जहाँ, हाँ, वही स्वर्ग है,
    स्वयंभूत थोड़ा कहीं स्वर्ग है।
    खलों को कहीं भी नहीं स्वर्ग है,
    भलों के लिए तो यहीं स्वर्ग है।
    सुनो, स्वर्ग क्या है, सदाचार है,
    मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है॥

    नहीं स्वर्ग कोई धरा-वर्ग है,
    जहाँ स्वर्ग के भाव हैं, स्वर्ग है।
    सुखी नारकी जीव भी हो गए—
    वहाँ धर्मराज स्वयं जो गए।
    कदाचार ही रौरवागार है;
    मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है॥

    यहीं स्वर्ग चाहे बना लीजिए,
    यहीं नारकी सृष्टियाँ कीजिए।
    नहीं कौ-सी साधना है यहाँ?
    वहीं सिद्धि है साधना है जहाँ।
    महा-साधना-क्षेत्र संसार है,
    मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है॥

    स्वर्ग क्यों न संसार नि:सार हो,
    भले ही यहाँ मृत्यु-संचार हो।
    नहीं किंतु विश्वेश है क्या यहाँ?
    जहाँ इष्ट है क्या नहीं है वहाँ?
    शरीरस्थ कर्ता क्रियाधार है,
    मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है॥

    जहाँ ज्ञान है, कर्म है, भक्ति है,
    भरी जीव में ईश्वरी शक्ति है।
    जहाँ मुक्ति में मुक्ति का धाम है,
    जहाँ मृत्यु के बाद भी नाम है,
    वही भव्य संसार क्या भार है?
    मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है॥

    यहीं प्रेम है, द्रोह भी है यहीं;
    यहीं ज्ञान है, मोह भी है यहीं;
    यहीं पुण्य है, पाप भी है यहीं;
    यहीं शांति, संताप भी है यहीं।
    कहो, क्या तुम्हें आज स्वीकार है?
    मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है॥

    जहाँ स्वार्थ का सर्वथा त्याग है,
    सभी के लिए एक-सा भाग्य है।
    जहाँ लोक-सेवा महा धर्म है,
    जहाँ कामना छोड़ के कर्म है,
    वहाँ आप ही आप उद्धार है,
    मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है॥

    यहाँ कल्पशाखी स्वयं हैं हमीं,
    करें यत्न तो है हमें क्या कमी?
    भरा कीर्ति में ही सुधा-सत्व है,
    मनुष्यत्व ही दिव्य देवत्व है।
    यही स्वर्ग-संगीत का सार है
    मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 282)
    • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1994
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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