नींद
neend
समय पर नींद आ जाए ज़रूर से
ज़रूरत भर
ज़रूरी नहीं
जैसे मैं अभी
तमाम कोशिशों के बाद भी सो नहीं पा रहा
बढ़ती बेरोज़गारी और छीनी जाती नौकरियों की
डराने वाली ख़बरों के बीच
अभी सलामत है मेरी नौकरी
किसी प्रेमिका के ख़याल में खोया नहीं हूँ
(ऑफ़िस और घर के बीच बिछी पटरी पर
ट्राम की तरह दौड़ता
मुझे याद नहीं कब किया था
पिछली बार प्यार)
मोबाइल में भरे तमाम संदेशों
और मित्र रिश्तेदारों की बातचीत में
किसी प्रिय के संकट की सूचना नहीं कोई
फिर मुझे क्यों नहीं आ रही नींद
क्या मैं रसोई के अपने एकमात्र हुनर का उपयोग करूँ
चाय बनाऊँ
पत्नी को जगाऊँ :
'आओ जी एक-एक चुस्की हो जाए
कुछ वक़्त प्यार का साथ कट जाए
मन की बातें बतियाए तो जैसे युग बीता'
या माँ के पास जाऊँ
गोद में सिर रखूँ
वह बचपन की लोरी गाने को कहूँ :
'आव रे निंदिया नींदर बन से
बबुआ हमर सूत जाए निमन से'
तो क्या यह अजीब होगा
आजी होतीं तो बच्चे की तरह
सुन लेता कोई कहानी ही
राजा की
परियों की रानी की
पिता से बतियाते तो आज भी लगता है डर
क्या करूँ
ध्यान धरूँ
किताब पढ़ूँ
बाहर सड़कों पर टहलूँ
कितने सुखी हैं वे लोग
वक़्त बेवक़्त जिन्हें ख़ूब आती है नींद
चलती बस में ट्राम में टैक्सी में
कहीं भी सो लेते हैं
पृथ्वी को कंधे पर थामे वे लोग
उन्हें रेल, ट्रकों डम्फरों, मशीनों के शोर में भी आ जाती है नींद
दौड़ती बसों-टैक्सियों के पहियों से हाथ भर दूर
सड़क पर बित्ते भर फैलाव में
सो जाते हैं जैसे माँ की कोख में अजन्मा शिशु निश्चिंत
सुना है
दुनिया के सबसे नर्म बिस्तर वालों को नींद नहीं आती
जो दुनिया की लगाम पकड़े लोगों को करते हैं इशारा
चादर की सिलवट भी उनकी पीठ को कर देती है घायल
छिपकली के गिरने की आवाज़ से भी टूट जाती है उनकी नींद
हम तो पर रहे हैं किसान पिछले हज़ारों पुश्तों से
(अब करने लगे हैं चाकरी)
तो क्या मेरी नींद उन खेतों में भटक गई है
जिन पर गिद्ध नज़र है नर्म बिस्तर वालों की
ज़मीन बचाने की जिनकी लड़ाई में मैं शामिल नहीं हूँ
क्या मेरी नींद उनकी नींद के साथ
किसी हाईवे पर धरने पर बैठ गई है
या देश के संसद भवन चली गई है
क्या मेरी नींद बतिया रही है मेरे किसान पूर्वजों से
मेरी भटकी नींद मुझसे क्या कुछ कह रही है?
- रचनाकार : ऋतेश कुमार
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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