एक
नींद अपने लिए जगह तलाश ही लेती है।
बया सुस्ता लेती है टहनी पर बैठे-बैठे
घड़ी दो घड़ी और हो जाती है फुर्र
धूप पहाड़ों से उतरते ही
मैदानों की गोद में जाकर हो जाती है ढेर
हवा तो समंदर की लहरों पर
खेलते-खेलते ही मारने लगती है झपकियाँ
चाँदनी जहाँ भी पाती है ख़ाली जगह
अपना बिस्तर लगा लेती है
मछलियाँ भी तैरते-तैरते
सोने का हुनर जानती हैं
नींद के लिए ज़रूरी नहीं
मख़मली गद्दे
वातानुकूलित कमरों की अनिवार्यता
गर्म देह का स्पर्श
नींद अपने लिए जगह तलाश ही लेती है
जहाँ भी हो ज़रा-सी संभावना।
दो
नींद अजान संकेत-लिपि में
उकेरे गए भित्ति चित्रों-सी होती है रहस्यमय
नींद का कोई रंग नहीं होता
नींद पानी की तरह पारदर्शी और गंधहीन होती है
जिस समय नींद किसी को घेरे होती है
कोई नींद को अपना हथियार बना
किसी का गला रेत रहा होता है
कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका के गलबाहें डाल
टहल रहा होता है समंदर किनारे
कोई बीमार अपने बिस्तर पर पड़े-पड़े
प्रार्थना के अंतिम मौलिक गीत रच रहा होता है
कोई नवजात पहली दफ़ा अपनी पलकें खोलकर
देख रहा होता है उजाले का रंग
नींद के घेरे में पड़ा आदमी शायद नहीं जानता
नींद आदमख़ोर भी होती है
गाँव के गाँव डकार सकती है एक निवाले में
जैसे उजाले को निगल जाती है औखा
नींद के बारे में और भी कई सच हैं
जैसे नींद आँखों में नहीं होती
ठीक उसी तरह
जिस तरह
सपने आँखों में नहीं होते
जन्मते हैं हमारे ही भीतर
पनपते हैं मस्तिष्क में
पलते-फूलते हैं अंतस की गहराइयों में।
तीन
नींद वहाँ भी नहीं है
जहाँ धूप वर्जित है
और वहाँ भी नहीं
जहाँ सिर्फ़ धूप बची है
बीच की जगह है कोई
और यक़ीनन यह जगह है
बची है उम्मीद
बचा है भरोसा।
चार
कभी नींद आदमी को उठाकर
इतिहास के कूड़ेदान में फेंक देती है
तो कभी छोड़ आती है
भविष्य की अंतहीन संकीर्ण गलियों में
जहाँ से लौटता है आदमी पसीने-पसीने
एक चैक या बड़ी शर्म के साथ
अपने चेहरे पर महसूस करता है
उभर आई विकृतियाँ
जो समय अपने चेहरे से उतार
उसके चेहरे पर चस्पाँ कर देता है धोखे से
नींद के बारे में
कई तरह के सच और अफ़वाहों के बीच
एक सच यह भी कि नींद ज़रूरी है
लेकिन दोस्त
नींद में होना एक रिस्क है
ख़ासकर इस दौर में।
- रचनाकार : प्रदीप जिलवाने
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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